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वात प्रकोप से क्यों पीड़ित होते हैं?

धार्मिक लोग वात प्रकोप से क्यों पीड़ित होते हैं?

“वात प्रकोप और मानसिक थकान: क्या आपके विचारों का बोझ बन रहा है समस्या?”

आप कह रहे हैं कि आप एक धार्मिक और सात्विक व्यक्ति हैं, फिर भी वात प्रकोप से पीड़ित रहते हैं। आपने बताया कि आप दाल, रोटी, सब्जी जैसी साधारण चीजें खाते हैं और लहसुन-प्याज से भी परहेज करते हैं। सात्विकता का मतलब आपके लिए ऐसा जीवन जीना है जहाँ इच्छाएं भी सीमित हों, और जीवन में जरूरतों का दायरा बहुत छोटा हो।


फिर भी, आपके जैसे सात्विक और धार्मिक लोगों को भी वात प्रकोप का अनुभव क्यों होता है? मेरे विचार में इसका कारण यह है कि आप अपनी मान्यताओं और विश्वासों को अत्यधिक मात्रा में दोहराते हैं।


एक धार्मिक व्यक्ति अपने मान्यताओं और विश्वासों के आधार पर हर जगह भगवान को देखने का प्रयत्न करता है । – जैसे जानवरों में, किसी व्यक्ति में, किसी वस्तु में, प्रत्येक वस्तु में भगवान का स्वरूप देखने का प्रयास करता है। वह इसलिए कि उसने ऐसी मान्यता बना रखी है कि परमात्मा हर वस्तु में विद्यमान हैं । वह  अपने विश्वास को उस व्यावहारिक वस्तु पर ढकने का प्रयत्न करता है । यही कारण है कि इस मानसिक प्रक्रिया की दख़लंदाज़ी से दिमाग पर बहुत ज्यादा भार पड़ता है।


जब आप हर वस्तु में अपने विश्वासों और मान्यताओं को आरोपित करते हैं, तो इससे दिमाग को अनावश्यक मेहनत करनी पड़ती है। आपके मस्तिष्क को ही नहीं बल्कि इन्द्रियों और सूक्ष्म दैहिक अंगों को भी बहुत अधिक  काम करना पड़ता है । जब कि यह क्रिया स्वाभाविक नहीं है , यह एक तरह से ऐक्शन क्रिया है जो  मन मस्तिष्क पर निरंतर आरोपित की जा रही है । क्योंकि आप हर व्यक्ति, वस्तु या प्राणी में भगवान को देखने की प्रयत्न करते हैं।

चूँकि यह पूरी प्रक्रिया विश्वास और मान्यताओं पर ही सिर्फ़ आधारित है , वस्तु में कितना भी परमात्मा माने किंतु वस्तु और परमात्मा में भेद समाप्त नहीं होता है । यदि भेद समाप्त हो जाए , अर्थात् वस्तु ख़त्म हो जाए और सिर्फ़ परमात्मा ही दिखने लगे तो समाधान मिल जाएगा । अर्थात् पूर्ण आत्म संतोष हो जाएगा । किंतु 

व्यावहारिक रूप में यह भेद समाप्त नहीं हो सकता है वह इसलिए कि भोजन करते समय भोजन को कितना भी परमात्मा का रूप स्वीकार कर लो किंतु उसे परमात्मा दिखने नहीं लगता , यदि वह परमात्मा दिखने लगे तो आप भोजन भला कैसे करेंगे । क्या परमात्मा को खाएँगे !

इसलिए वस्तु और वस्तु में परमात्मा को देखने का द्वैत व भिन्नता हमेशा बनी रहती है । यही द्वैत मानसिक थकान का मूल कारण होता है । यह द्वैत जितना गंभीर होता जाता है , उतना ही आत्म असंतोष बढ़ता जाता है और अंततः वाट का प्रकोप तीव्रता से ऊपर हो उठता है । आत्म असंतोष का अर्थ ही है वात दोष । 


इस द्वैत में मन, मस्तिष्क, देह और इन्द्रियों की थकान बढ़ती जाती है जिससे चंचलता एवं वायु से संबंधित सभी दोष बढ़ते ही हैं । 


अब वात व वात प्रकोप का अर्थ समझ लेते हैं - मेरे अनुभवानुसार वात का मूल अर्थ ही है चलायमान और वात प्रकोप का अर्थ है आवश्यकता से अधिक चलायमान । अर्थात् वायु जो कि देह में एक दायरे में सीमित है किंतु उसमें भूचाल मचाया हुआ है । यही वात प्रकोप है । मेरे अनुसार अनावश्यक मानसिक क्रियाएं जो आत्म संतोष कम व नहीं के बराबर देती हैं वे वात प्रकोप के लिए उत्तरदायी हैं । यहाँ पर धार्मिक व्यक्तित्व में वात के प्रकोपों की चर्चा हो रही है तो मैं कहना चाहूँगा कि चूँकि अद्वैत को पाने हेतु वे द्वैत में मन मस्तिष्क की ऊर्जा को कुछ और ही खर्च कर देते हैं । द्वैत इसलिए कि वस्तु को वस्तु के रूप में न देखकर कर उसमें किसी और सत्ता का अनुमान करना । इससे बड़ा द्वैत क्या है । भोजन को भोजन न मानकर किसी और मान्यता मानकर भोजन करोगे तो स्वाद पर ध्यान जाने में कठिनाई होगी , अंततः मन को एक समय में किसी एक वस्तु से सामना करने के बजाय दो वस्तु से सामना करना पड़ रहा है ।  


इसी के विपरीत यदि व्यावहारिक और आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो जिस वस्तु से संपर्क है , उसी वस्तु का अनुभव है , जैसे भोजन से संपर्क तो भोजन का अनुभव , इस अवस्था में मन का अनावश्यक चित्रण बनाना स्वतः ही समाप्त हो जाता है ।मिस अवस्था में थकान के होने और विचारों की प्रक्रिया का बंद होना स्वाभाविक ही हो जाता है । और साथ साथ अद्वैत सिद्ध हो जाता है । यदि बहुत सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो इस व्यावहारिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया से गुजरने पर मान्यताएं और विश्वास की कोई विशेष आवश्यकता नहीं पड़ती है । यद्यपि बिना विश्वास के जीवन एक पल भी नहीं चल जा सकता किंतु व्यावहारिकता का उपहास नहीं किया जाना चाहिए ।


जैसे जानवर को जानवर की तरह, स्त्री को स्त्री की तरह पुरुष को पुरुष की तरह, घर को घर की तरह, मोबाइल को मोबाइल की तरह ही देखने में इसी भी प्रकार की मेहनत नहीं दिखती है , उसमें मान्यताओं को डालने की आवश्यकता नहीं दिखती है । उसमें किसी अन्य परम शक्ति का मानसिक चित्रण न करें । 

इस व्यवहारिकता से मन मस्तिष्क ही नहीं देह का प्रत्येक तंत्र आराम की अवस्था में चला जाएगा । उसकी मानसिक ऊर्जा जो चित्रण करने में जा रही थी वह रुक जाएगी । 


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