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सोचने एक बीमारी तो नहीं

सोचने में अति कर देना एक बीमारी तो नहीं 

     सोचना सिर्फ उसी के बारे में हो सकता है, जो आपके दूर है, जो आपके नजदीक है, जिसके बारे में आप पूरी तरह से जान रहे होते हैं, अनुभव किए हुए होते हैं। उसके बारे में बहुत फैंटेसी नहीं कर सकते। आप केवल उसी के बारे में फैंटेसी कर सकते हैं, जिसके बारे में आप मान्यता बनाए हुए हैं, क्योंकि आपने उसको अनुभव नहीं किया है।


अब जैसे एक सिंपल सा उदाहरण है: फल। अगर एक केला है, और आपने उसे खाया हुआ है, तो केले के स्वाद के बारे में आप कोई फैंटेसी नहीं कर सकते। लेकिन अगर केले को नहीं खाया और केले के टेस्ट के बारे में सुना है, तो उसके बारे में बहुत फ्रीडम होगी क्योंकि आपको उसका अनुभव नहीं हुआ।


मैं यह कहना चाह रहा हूं कि जितना आप किसी भी वस्तु के नजदीक आते हैं या किसी वस्तु को अनुभव करते हैं, उसकी फैंटेसी करने का कोई तुक नहीं बनता। यदि आप फैंटेसी करते हो, तो इसका मतलब वह घातक है। इसका मतलब है कि आप सिर्फ आदत से ऐसा कर रहे हो।


जैसे देह के बारे में फैंटेसी क्या करोगे? यदि आप देह को अनुभव कर रहे हो, आप संतुष्ट हो रहे हो, अपने आप में बहुत संतुष्ट हो, देह से, मन से, अपने वैचारिक क्रियाओं से, तो आप फैंटेसी नहीं कर पाओगे। लेकिन अगर देह के बारे में आपका अनुभव कम है और बाहर की दुनिया में ज्यादा है, तो आप फैंटेसी में फंस जाओगे।


जैसे 99 फीसद लोग अपनी मेडिकल चेकअप कराने से डरते हैं, क्योंकि वे जान जाएंगे कि अपने अंदर क्या गड़बड़ी है। इसीलिए वे जानना नहीं चाहते।


मेरा यह कहने का मतलब है कि योग साधना में जितना आप अपने आप को समझते जाते हैं, उतनी ही आपकी फैंटेसी कम होती जाती है और आप विचार विहीन की ओर बढ़ते जाते हो।


इसलिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आप अनुभव पर जोर दें, ज्यादा कल्पना पर जोर न दें।


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