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ध्यान का अर्थ और उद्देश्य

ध्यान का अर्थ और उद्देश्य 

व्यक्ति जब ध्यान की अवस्था में जाता है तो इसका उद्देश्य यही होता है कि उसने अपनी स्वैच्छिक (वॉलंटरी) गतिविधियों को रोक दे । स्वैक्षिक का तात्पर्य उसकी उन सभी गतिविधियों से है जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से संबंधित है । इन सभी गतिविद्यों को मैं ऐक्षिक ही मानता है वह इसलिए क्योंकि ये इक्षाओं के आधार पर ही चलती हैं । जैसे जागृति अवस्था में व्यक्ति कुछ न कुछ करता रहता है । किंतु वही गहन निद्रा में उसकी ये इन्द्रियाँ शांत हो चुकी हुई होती हैं ।  

सामान्यतः लोगों की यह सामान्य अवधारणा है कि ध्यान का अर्थ अनैक्षिक  (नॉन-वॉलंटरी) गतिविधियों को रोकना है । अर्थात देह और इन्द्रियों की स्वाभाविक क्रिया को रोक देना । जैसे कि दिल की धड़कन बंद हो जाए, फेफड़ों का कार्य करना बंद कर देना , साँसों को रोक देना या शरीर द्वारा भोजन की मांग को सदा के लिए समाप्त कर देना । 

किंतु व्यावहारिक दार्शनिकों व ध्यान के उच्चतर साधकों के द्वारा हमेशा यही कहा गया कि ध्यान ऐक्षिक क्रियाओं का समापन है ।

      किंतु ध्यान रहे उन ऐक्षिक क्रियाओं को रोकने का अर्थ यह तो नहीं कि आँखे देखना बंद करें, नाक साँसों को लेना बंद कर दे, अथवा मन का चलायमान होना सदा के लिए बंद हो जाय ।  ऐसा कदापि नहीं है ।मेरे स्वयं के अनुभव में इसे अल्पकाल के लिए ही बंद किया जा सकता है । क्योंकि दैनिक क्रियाओं के लिए ऐक्षिक मांसपेशियों का क्रियान्वयन आवश्यक है , बिना ऐक्षिक क्रियाओं के शरीर का निर्वहन भी संभव नहीं हो सकता है । क्योंकि भोजन को चबाना भी ऐक्षिक गतिविधियों में ही समलित करना पड़ेगा । भोजन स्वतः ही तो कोई चबाता नहीं । इसीलिए ऐक्षिक क्रियाओं का सदा के लिए रुक जाना संभव नहीं साथ व्यावहारिक भी नहीं है ।   

मेरे अनुभव के अनुसार ध्यान वि योग दर्शन में ऐक्षिक गतिविधियों को उसी तरह से अवरुद्ध करना है जैसे यह देह कुछ घंटों के लिए गहन निद्रा में चली जाती  है । उस गहन निद्रा में सभी इन्द्रियाँ अपने आप में शांत हो चुकी हुई होती हैं । उनमें किसी भी प्रकार की हलचल नहीं हो रही होती है । मैं हमेशा कहता हूँ कि यही अवस्था यदि कोई भी अभ्यासी जागृत होकर प्राप्त कर ले तो इसे ही ध्यान कहते हैं । 

चूँकि नींद में स्वयं का आभाष नहीं होता है किंतु इस ध्यान के अभ्यास में इन्द्रियाँ गहन शांति में चली जाति हैं किंतु हमें उसका आभाष रहता है । अर्थात् रियलटाइम इन्द्रियों के रुक जाने का अनुभव होता है । 

अनुभव अनुसार इसी अवस्था में उसी रियलटाइम , उसी वर्तमान में देह के सभी अंगों का अनुभव होता है । उस काल में विचारों से मुक्त होने की वजह से हम यह देख पाते हैं कि यह देह अपने उस अनैक्षिक क्रियाओं के स्वभाव के द्वारा स्वयं को कैसे हील कर रहा है । देह के सभी अंग उन सभी इन्द्रियों से एक सीमा तक मुक्त हो चुके हुए होते हैं । और इसी अवस्था में ‘मैं’ भी अपनी ज्ञानात्मक क्षमता से स्वयं को इन्द्रियों और देह से कुछ पलों के लिए मुक्त करा चुका हुआ होता है ।   

अंततः यह सिद्ध हुआ कि ध्यान के मध्यम से ऐक्षिक मांसपेशियों को ढीला और शांत कर दिया जाता है । 


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