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व्यग्र स्वभाव से होने वाले रोग !

1 day ago By Yogi Anoop

जिसकी यात्रा पूर्ण हो चुकी हो, वह यात्री नहीं रह जाता

जिस प्रकार कोई यात्री जब अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है, तब उसे ‘यात्री’ कहना अर्थहीन हो जाता है—उसी प्रकार, एक साधक जिसकी साधना पूर्ण हो चुकी हो, जिसके भीतर अब कोई लक्ष्य नहीं बचा, उसे भी ‘साधक’ कहना उपयुक्त नहीं। साधक वह होता है जो अभी मार्ग पर है, लक्ष्य की ओर गतिमान है।

यदि इस स्थिति का गहराई से मनन किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि जिस व्यक्ति को जीवन का पूर्ण अनुभव प्राप्त हो गया है, जो सत्य को भीतर से छू चुका है—उसके स्वभाव में कोई हड़बड़ी, कोई अधीरता शेष नहीं रह जाती। वह किसी भी प्रकार की जल्दबाज़ी का शिकार नहीं होता—न सोचने में, न बोलने में, न चलने में।

लेकिन यदि किसी व्यक्ति के व्यवहार में अब भी कोई भी असंयमित गति—अतिरिक्त बोलना, बार-बार निर्णय बदलना, विचारों में तीव्र अस्थिरता, या कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों की अनावश्यक सक्रियता—दिखती है, तो यह संकेत है कि वह अभी भी ‘मार्ग में’ है, ‘गंतव्य पर’ नहीं। और वह भी ग़लत मार्ग पर है जो भविष्य में मानसिक और दैहिक रोग प्रदान करेगा । 

साथ साथ उस चरित्र (स्वभाव वाले व्यक्ति) का तो कहना ही क्या जो बोलते हुए अपनी कर्मेन्द्रियों में झटके दे रहा होते है । वह तो बहुत ही नक़ली व अव्यावहारिक किस्म का व्यक्ति होता है । वह चाहे कितनी भी तार्किक और ज्ञानपूर्ण बातें कर ले, चाहे वह दर्शन और साधना के विषय में कुछ भी बड़ी बड़ी बातें कहे—यदि उसकी एक अथवा दो इंद्रियों के सक्रिय होने पर अन्य कर्मेन्द्रियों  भी अति सक्रिय होती हैं तब इसका अभिप्राय है कि उसकी आध्यात्मिक व चिन्तनशीलता में आनुभविक गहराई अत्यंत कम है । इसका सीधा सा अर्थ है कि ज्ञान्द्रियों के द्वारा अच्छी अच्छी शांत बातें करने पर भी कर्मेन्द्रियों में तनाव आ रहा है । जैसे ज्ञान्द्रियों में क्रोध के समय कर्मेन्द्रियों (हाथों और पैरों) में तनाव आ जाता है । क्रोध आने पर व्यक्ति मार पीट करने लगता है ।  

जैसे एक अन्य उदाहरण से समझा जा सकता है , किसी भी विषय के बारे में प्रवचन (ज्ञान्द्रिय कर्म)  करते हुए यदि हाथों और पैरों (कर्मेन्द्रिय) में अत्यंत चपलता दिखती है तब यह ज्ञात है कि उसके द्वारा जो भी बोला जा रहा है वह सिर्फ अनुभवहीन बाते ही बोली जा रही है और साथ साथ उसके अंदर विचारों का रेपेटिशन अधिक हो रहा है तभी तो अन्य इन्द्रियों को भी समय मिल जाता है हरकत करने के लिए । इसका सीधा सा अर्थ है कि वह जो भी बोल रहा है उसके स्वयं की इंद्रियाँ शांत नहीं हो रही हैं तो क्या गारंटी है कि उसके ज्ञानात्मक बातों के द्वारा दूसरे के जीवन में स्थिरता आ सकेगा  । 

जिस ज्ञानी वक्ता की बातों से उसकी अपनी अनेक इन्द्रियाँ शिथिल नहीं हो रहों तो क्या गारंटी  है कि वह दूसरों को शांत कर पाएगा । जब वक्ता के द्वारा बोलने वाली इंद्रियाँ जो उसी के अन्य इन्द्रियों से अत्यन्त ही जुड़ी हैं , उसमें अच्छा प्रभाव नहीं आ पा रहा है तब क्या गारंटी है कि वह दूसरों में शान्ति और स्थिरता ला पाएगा । 

इसका सीधा सा अर्थ है कि  उसकी अपनी ही इन्द्रिय उससे ज्ञानात्मक तर्कों से स्थिरता की ओर आकर्षित नहीं हैं । इन्द्रियाँ (5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ और मन) अभी भी चंचल हैं, तो उसका ज्ञान अभी व्यावहारिक आत्मसिद्ध नहीं हुआ है। वह अभी भी जिज्ञासु है, यात्री है—साक्षात्कार की स्थिति में नहीं पहुँचा है ।  

यह केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से भी समझने योग्य है। जो व्यक्ति लगातार हाइपरएक्टिव रहता है—जो हर क्षण कुछ न कुछ करना चाहता है, कुछ पाना चाहता है, सोचता है, भागता है—उसके भीतर एक गहरी असुरक्षा और अधूरी खोज छिपी होती है। यह ग़लत नहीं है किंतु इसका अर्थ है कि खोज में गहराई का आभाव है । 

अन्तरतम का विज्ञान यह कहता है कि इस प्रकार की लगातार व्यग्रता—चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक—न केवल Decision Fatigue और Cognitive Overload को जन्म देती है, बल्कि इसका शरीर पर भी गंभीर दुष्प्रभाव पड़ता है।

• हृदय गति बढ़ना, हाई ब्लड प्रेशर, हार्मोनल असंतुलन, मस्तिष्क में Cortisol का अत्यधिक स्राव, नींद की कमी, और दीर्घकालीन तनाव से जुड़ी बीमारियाँ—जैसे स्ट्रोक, डिप्रेशन, एंग्ज़ायटी आदि—अक्सर इसी प्रकार के हाइपरएक्टिव जीवनशैली से जुड़ी होती हैं।

इसके विपरीत, जो व्यक्ति अंतर्तम में स्थिरता को प्राप्त कर चुका होता है, उसके बाहर की इन्द्रियाँ—कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ—भी सहज रूप से संतुलन में आ जाती हैं। वह आवश्यकता से अधिक न देखता है, न बोलता है, न चलता है। उसके प्रत्येक व्यवहार में एक प्रकार की शांति, गंभीरता और अर्थवत्ता होती है। वह संसार के बीच रहते हुए भी उसके ‘गति-दबाव’ में नहीं फँसता।

वह न कोई प्रभाव जमाना चाहता है, न किसी को कुछ सिद्ध करना। उसके कर्म अब प्रतिक्रियाओं से नहीं, साक्षात्कार से उत्पन्न होते हैं। यही स्थिरता उसकी सबसे गूढ़ साधना का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

इसलिए मेरी साधना की दृष्टि से—जहाँ हाइपरएक्टिविटी है, वहाँ अभी खोज अधूरी है। जहाँ इन्द्रियाँ शांत हैं, वहीं यात्रा पूरी हो चुकी है। 

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