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विचारों का विराम और मंत्र-जप

2 days ago By Yogi Anoop

विचारों का विराम और मंत्र-जप की सूक्ष्म शक्ति

विचारों का प्रवाह मनुष्य के अस्तित्व का स्वाभाविक हिस्सा है। मन ठीक उसी तरह काम करता है जैसे किसी नदी का बहाव—निरंतर, अविराम, और कई दिशाओं में फैलता हुआ। कोई भी साधक या दार्शनिक यह नहीं कहता कि विचारों को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया जाए, क्योंकि विचार मन का स्वभाव हैं। किंतु यह ज़रूर कहा जाता है कि उनके मध्य विराम आवश्यक हैं। यह वही विराम है जो मन की क्षमताओं को पुनः व्यवस्थित करता है और बुद्धि को स्पष्टता देता है।

हमारा मस्तिष्क निरंतर सक्रिय रहता है, और यदि उसे अपने ही प्रवाह के भीतर विश्राम न मिले, तो थकावट, तनाव और अनिर्णय जैसी स्थितियाँ जन्म लेने लगती हैं। विचारों के बीच का यह सूक्ष्म विश्राम उसी प्रकार है जैसे हृदय की धड़कन। धड़कन केवल गति नहीं है—उस गति के बीच में छिपे विश्राम के कारण ही हृदय अपना कार्य सुचारू रूप से करता है। यदि वह विश्राम न हो, तो धड़कन भी जीवन नहीं दे सकती। यही सिद्धांत मन पर भी लागू होता है। विचार चलें, पर उनके बीच स्पेस हो, तो मन अपनी प्राकृतिक लय में लौट आता है।

यही विश्राम सिखाने के लिए योग और ध्यान में मंत्र-जप एक अत्यंत महत्वपूर्ण विधि माना गया है। मंत्र कोई जादुई ध्वनि नहीं, बल्कि एक दोहराया जाने वाला शब्द है, जिसकी नियमित पुनरावृत्ति मन के उछाल को शांत करती है। उदाहरण के लिए, “ॐ” जैसा मंत्र या कोई भी सरल, एकाक्षरी मंत्र—जब बार-बार दोहराया जाता है—विचारों की भीड़ के बीच एक लयबद्ध ध्वनि पैदा करता है। यह ध्वनि मन के निरंतर प्रवाह में एक लय, एक अनुशासन, और धीरे-धीरे एक विराम उत्पन्न करती है।

मंत्र का जप विचारों को दबाता नहीं; बल्कि उनकी गति को धीमा करता है। जैसे कोई धारा तेज बह रही हो और उसमें एक समान लयबद्ध तरंगें डाल दी जाएँ, तो पानी के भीतर छिपे भँवर शांत हो जाते हैं। मंत्र की पुनरावृत्ति भी विचारों के भीतर इस तरह की तरंगें उत्पन्न करती है—धीमी, स्थिर, और भीतर तक उतरने वाली।

धीरे-धीरे जब साधक मंत्र को मन में दोहराता है, तो एक समय आता है जब मंत्र और विचारों के बीच एक सूक्ष्म अंतराल बनने लगता है। यही अंतराल वह विराम है जिसकी मन को सबसे अधिक आवश्यकता होती है। इसी से मानसिक संतुलन बहाल होता है, भावनाएँ स्थिर होती हैं और शरीर में नयी ऊर्जा का संचार होता है।

विचारों का समाप्त हो जाना लक्ष्य नहीं है; लक्ष्य है इनके बीच उस शांत आकाश को पहचानना जहाँ मन स्वतः स्थिर हो जाता है। और मंत्र—यह सरल, दोहराया जाने वाला शब्द—उस आकाश का द्वार खोलने की एक अत्यंत सरल, लेकिन अत्यंत प्रभावी कुंजी है।

जब विचारों की नदी बहुत तेज बहने लगे, तो मंत्र जप एक ऐसा घाट बन जाता है जहाँ साधक ठहर कर स्वयं को फिर से देख सकता है। यही ठहराव, यही विश्राम, और यही विराम मन को उसकी मूल सहजता में लौटाते हैं।

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