क्या ध्यान केवल एकाग्रता है? या उससे कहीं आगे की कोई यात्रा?
ध्यान और एकाग्रता को सामान्यतः एक ही प्रक्रिया समझ लिया जाता है। विशेषकर जब कोई साधक अपनी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत करता है, तो यह भ्रम सहज रूप से उत्पन्न होता है कि ध्यान का अर्थ है — मन को किसी एक बिंदु, वस्तु या विचार पर केंद्रित करना। और उस बिंदु व वस्तु पर एकाग्रचित्त हो करके उसे प्राप्त कर लेना । जैसे भक्त अपने ईश्वर पर पर मन और इन्द्रियों को एकाग्र करके उसे प्राप्त करने की इक्षा रखता है । अथवा किसी कार्य में मन को एकाग्र करने से उस कार्य में सफलता प्राप्त हो जाती है ।यह एकाग्रता है किंतु यह ध्यान नहीं है ।
यदि हम ध्यानपूर्वक इन दोनों में अंतर के भ्रम को समझें, तो स्पष्ट होगा कि एकाग्रता और ध्यान में मौलिक, अर्थात् बुनियादी अंतर है — न केवल उनके उद्देश्य में, बल्कि उनकी दिशा और प्रभाव में भी।
एकाग्रता, मूलतः विषय-प्रधान प्रक्रिया है। इसमें साधक किसी एक वस्तु, विचार या ध्वनि पर मन को स्थिर करता है — जैसे किसी दीपक की लौ पर, किसी मंत्र पर, भक्त अपने इष्टदेव या किसी विशेष कल्पना पर। इस प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य होता है उस विषय पर स्पष्टता प्राप्त करना, उसमें स्थायित्व लाना, और अंततः इस एकाग्रता से एक सीमा तक संतोष शांति और विचारहीनता को प्राप्त कर लेता है । एक व्यावहारिक उदाहरण से भी इसे समझा जा सकता है - भोजन करने वाला भोजन के स्वाद पर केंद्रित होता है , उसका मन स्वाद पर एकाग्र हो जाता है और उसे स्वाद के ज्ञान के साथ साथ संतुष्टि भी प्राप्त हो जाती है । किंतु इस एकाग्रता से उसे स्वयं का ज्ञान नहीं प्राप्त हो जाता है । यदि उसे भोजन के स्वाद से स्वयं का ज्ञान प्राप्त हो जाता तो आज सभी स्व ज्ञानी हो जाते । स्वयं के ज्ञान के लिए इतना प्रयत्न करने कि आवश्यकता ही न थी ।
यहाँ शांति, संतुष्टि का अनुभव उस विषय में ही छुपा हुआ है जिसे उसने एकाग्रता से प्राप्त कर लिया । वस्तुतः एकाग्रता विषय की ओर मन की यात्रा है। यहाँ पर विषय का ज्ञान होता है । इसी प्रक्रिया से विज्ञान भी गुज़रता । प्रत्येक वैज्ञानिक वस्तु पर एकाग्रता केंद्रित करके ही खोज करते हैं ।
इसके विपरीत, ध्यान स्व-केंद्रित प्रक्रिया है। ध्यान में विषय (object) केवल एक माध्यम होता है, न कि ध्येय। ध्यान करने वाले का मंतव्य विषय को जानना नहीं होकर विषय को माध्यम बनाकर स्वयं को अनुभव करना होता है । ध्यान का लक्ष्य किसी विषय को समझना या उसमें स्थिर होना नहीं, बल्कि उस विषय के माध्यम से स्वयं को जानना है। जब साधक किसी वस्तु पर ध्यान देता है, तो उसका उद्देश्य उस वस्तु को जानना नहीं होता — बल्कि उस प्रक्रिया को जनाना होता है जिसमें जानने वाले को जाना जाता है । यह अनुभव करना होता है कि “जो जान रहा है”, वह कौन है। इसीलिए ध्यान का केंद्र विषय नहीं, द्रष्टा होता है। वहाँ साधक विषय को माध्यम बनाते हुए धीरे-धीरे विषय को दर्पण की ही तरह प्रयोग करके , उसके गुणों में न फँस करके स्वयं की अनुभूति कर लेना ।
अंततः इसी प्रक्रिया से वह अपने ‘स्व’ का, अपने “मैं” का साक्षात्कार करता है।
ध्यान और एकाग्रता में यह सूक्ष्म अंतर बहुत बड़ा व्यावहारिक और दार्शनिक परिणाम उत्पन्न करता है। एकाग्रता साधना के प्रारंभिक चरण में सहायक हो सकती है, पर यदि साधक उसी में अटक गया, और उसे ही ध्यान मान लिया — तो उसकी यात्रा सीमित हो जाएगी। एकाग्रता साधन है — ध्यान नहीं। ध्यान तो वह है जो स्व का पूर्ण ज्ञान करा दे ।
ध्यान में अंतिम लक्ष्य है — उस चैतन्य द्रष्टा का अनुभव, जो देखे जाने वाले दोनों से परे है। यही “मैं” का पूर्ण ज्ञान है। वही आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव है।
और यही वह स्थिति है, जहाँ से ध्यान ध्यान बनता है — केवल मानसिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि आत्मिक अनुभूति की एक दिव्य अवस्था।
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