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दृष्टा, दृश्य नहीं हो सकता है

3 days ago By Yogi Anoop

दृष्टा, दृश्य नहीं हो सकता है 

“स्वयं” — यह शब्द जितना सहज प्रतीत होता है, उतनी ही इसकी उपस्थिति व्यावहारिक और साथ साथ रहस्यमयी भी है। जब कोई कहता है कि “मैं स्वयं को अनुभव करता हूँ”, तो यहाँ पर यह समझने की आवश्यकता है कि वह अनुभव कहाँ घट रहा है? स्वयं का अनुभव तो बिना किसी देह, मस्तिष्क इन्द्रियाँ और मन के तो हो नहीं सकता है । अर्थात् इन्ही के माध्यम से उस “स्वयं” व “मैं” का अनुभव होता है । यदि ये मन , इन्द्रियाँ व मस्तिष्क न होता तो “मैं” स्वयं की अनुभूति भी कैसे कर सकता था । इसीलिए मेरे अनुभव में “मैं” (पुरुष) प्रकृति के बिना अपंग है और प्रकृति, पुरुष के बिना अपंग । 

ध्यान दीजिए — “स्वयं” या “मैं” का कोई अलग दृष्टा नहीं हो सकता, जब वह स्वयं का अनुभव करता है तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह स्वयं को दृश्य बना लेता है । अर्थात् “मैं” व  “स्वयं” ही दृश्य बन जाता है ऐसा नहीं है । भला “मैं” स्वयं “मैं” का दृष्टा कैसे हो सकता है ! 

दृष्टा तो स्वयं “मैं” ही है । यदि उस “मैं” को कोई और “मैं” देख रहा होता, तो “स्वयं” फिर “स्वयं” न होकर एक दृश्य वस्तु बन जाता। किंतु यहाँ ऐसा नहीं है। जब मैं कहता हूँ कि “मैं स्वयं को अनुभव करता हूँ”, तो “मैं” वास्तव में एक सूक्ष्म दृश्य माध्यम के ज़रिए अपने ही अस्तित्व को अनुभव करता हूँ । और वह माध्यम यह भौतिक तत्व अर्थात् इन्द्रियाँ , मस्तिष्क, मन ही हैं । यह भी सत्य है कि मन के शून्य होने पर जहाँ आकार ही नहीं है , रूप नहीं रंग नहीं , उस शून्य मन की अवस्था में , शून्य को साधन बनाकर स्वयं का अनुभव होता है । यद्यपि शून्य भी सूक्ष्म दृश्य ही है । जो कहीं न कहीं अदृश्य है किंतु “मैं” की एकाग्रता वहाँ पर केंद्रित है । 

यह अनुभव दर्पण में झाँकने के समान है।

दर्पण हमें दिखाई देता है — वह एक दृश्य है — किंतु जब हम उस दर्पण (दृश्य) झाँकते हैं, तो हमारा ध्यान दर्पण पर नहीं ठहरता, बल्कि उस प्रतिबिंब पर केंद्रित हो जाता है जिसमें हम स्वयं को देखते हैं। वह इसलिए क्योंकि हमारा उद्देश्य दर्पण को देखना न होकर स्वयं को देखना होता है तब हम दर्पण में स्वयं को ही देखते हैं । अन्यथा सिर्फ दर्पण को देखते तो हम स्वयं न देख पाते । दर्पण के माध्यम से हम स्वयं को देखते हैं किंतु दर्पण पर ध्यान केंद्रित न होकर स्वयं पर ही होता है । ध्यान दें दर्पण के बिना स्वयं को देख पाना संभव नहीं होता है । 

वह दर्पण माध्यम के रूप रहकर जो कि दृश्य है दृष्टा स्वयं की अनुभूत कर पाता है । 

यही बात दृष्टा व “मैं” के उपर लागू होती है । दृष्टा दृश्य को माध्यम बनाकर स्वयं की अनुभूति कर पाने में सक्षम होता है । यदि वह शून्य भी न हो जिसका दृष्टा अनुभव कर रहा है तो भला वह स्वयं की अनुभूति कैसे करेगा । 

ठीक यही बात मन, इन्द्रियों और मस्तिष्क के संबंध में भी लागू होती है। जब मैं स्वयं को अनुभव करता हूँ, तो इन सभी का सहयोग होता है — किंतु अनुभव इनमें टिकता नहीं है। ये सब माध्यम हैं, उपकरण हैं, किन्तु लक्ष्य नहीं। जैसे दर्पण से होकर मैं स्वयं को देखता हूँ, वैसे ही इन सूक्ष्म माध्यमों से होकर मैं उस “मैं” तक पहुँचता हूँ, जो इन सबों का दृष्टा है । 

अब यहाँ एक भ्रम अक्सर होता है — जब कोई कहता है, “मैं स्वयं को देख रहा हूँ,” तो वह यह मान लेता है कि “मैं” दो भागों में बँटा है — एक जो देखता अर्थात दृष्टा है, और जो वह स्वयं को देखता है तो वह दृश्य भी हो गया । किंतु ऐसा है नहीं । दृश्य का सूक्ष्म रूप से सहायता लेकर दृष्टा स्वयं की अनुभूति करता है । जैसे स्मृति में जो शून्य भर रखा है उसी के माध्यम से वह शून्य को अनुभव करते हुए स्वयं की अनुभूति करता है । शून्य भी तो दृश्य ही है । वही स्मृति का ही हिस्सा है । स्मृति का प्रत्येक हिस्सा दृश्य है किंतु स्मृति में उस शून्य के माध्यम से स्वयं की अनुभूति जो करता है वह दृष्टा है । यही आत्म ज्ञान है । यही अद्वैत है ।

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