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त्राटक: दार्शनिक पथ

2 days ago By Yogi Anoop

त्राटक: रूपहीनता की ओर एक दार्शनिक पथ

किसी भी साधना को सही रूप से समझने के लिए केवल उसकी तकनीक जानना पर्याप्त नहीं होता; उसके पीछे छिपे हुए कारण, तर्क और दर्शन को समझना ही वास्तव में साधना का हृदय होता है। त्राटक भी इसी सिद्धांत का अनुसरण करता है। यह ध्यान पाँच इंद्रियों में सबसे प्रमुख—आँख—पर आधारित है। मनुष्य की दुनिया मुख्यतः दृश्यात्मक है, इसलिए आँख वह द्वार है जहाँ से मन सबसे अधिक प्रभावित होता है। रूप, रंग, आकार—यह सब मन को सहज ही खींच लेता है, इसलिए भक्ति में रूप-ध्यान कराया जाता है, जहाँ किसी मनुष्य-रूप से भाव उत्पन्न होते हैं और मन उसकी ओर आकर्षित हो उठता है।

लेकिन त्राटक इसी परिचित मार्ग से साधक को धीरे-धीरे आगे ले जाता है।

पहला पक्ष: जब आकार हो पर भाव न हों

साधना का मार्ग तभी खुलता है जब साधक अपने मन की आदतों को पहचानता है। सामान्यतः ‘मैं’ मन और आँखों के माध्यम से सामने की वस्तु में रूप, रस या भाव तलाशता है। किंतु यदि उसके सामने ऐसा आकार रखा जाए जिसमें केवल आकार हो, पर भाव न हों—जैसे एक बिंदु—तब मन अचानक रिक्त हो जाता है। और मैं’ को जो मन के माध्यम से भाव तलाश रहा था अब उसे पाता ही नहीं ।  बिंदु में न रस है, न आकर्षण, न कोई भावात्मक संकेत। यही से साधक पहली बार भाव-विहीन दृश्य के अनुभव की शुरुवात करता है ।

दूसरा पक्ष: देखने वाले का सामना स्वयं से

अब साधना केवल बिंदु को देखने की ही नहीं रहती। वह इसलिए कि अब वह देखने वाले को आँखों से कोई भाव प्राप्त नहीं हो रहा है तो वह —आँख—के भीतर लौटना शुरू करता है। जैसे किसी बच्चे को पढ़ायी करना एक बहुत बड़ी मजबूरी लगती है , जैसे ही माता पिता पढ़ाई के लिए कहते हैं उसे नींद आने लगती है , सिर दर्द शरीर दर्द भी आँखों में थकान लगने लगती है ।  

वैसे ही जब मन बिंदु में कोई भाव नहीं पाता, तो वह उसी साधन अर्थात् आँख की ओर लौट पड़ता है जिससे देखा जा रहा है। त्राटक के कुछ ही क्षणों में आँखें ही साधक का विषय बन जाती हैं। उसका ध्यान आँखों के तनाव पर केंद्रित हो जाता है । अब धीरे धीरे वह जिस साधन से देख रहा था उसकी तरफ़ लौटना शुरू कर रहा है । 

तीसरा पक्ष: आँखों का तनाव और मन का लौटना

अब जब आँखें किसी एक भावविहीन बिंदु पर टिक जाती हैं, तो कुछ देर में उनका तनाव महसूस होने लगता है। बिंदु में रस न होने के कारण मन अपनी पुरानी आदतों की ओर लौटने लगता है, और वही लौटना उसे आँखों की संवेदनाओं तक खींच लाता है। आँखों के भीतर का तनाव, खिंचाव और कठोरता अब साधक को स्पष्ट अनुभव होने लगते हैं। यह तनाव त्राटक की तैयारी का अनिवार्य हिस्सा है।

चौथा पक्ष: वह दहलीज़ जहाँ साधना शुरू होती है

गुरु यहाँ कहता है—“जब तक आँखों में पानी न आने लगे, तब तक बिंदु को घूरते रहो।”

यह बात साधारण लग सकती है पर इसका योगिक अर्थ अत्यंत गहरा है।

जिस प्रकार किसी भी मांसपेशी की क्षमता तब तक नहीं बढ़ती जब तक वह थोड़े दर्द और थकान की सीमा तक न पहुँचे, ठीक वैसे ही आँखों की स्थिरता भी अपनी चरम सीमा तब प्रकट करती है जब वह बिना पलक झपकाए बिंदु पर अडिग टिकी रहती है। आँखों से पानी आना वस्तुतः पसीने का ही एक रूप है—एक संकेत कि अभ्यास अपनी दहलीज़ तक पहुँच गया है। यही त्राटक का पहला चरण है, जहाँ स्थिरता शारीरिक स्तर पर धीरे-धीरे विकसित होने लगती है। 




दूसरा चरण: जब वास्तविक साधना शुरू होती है

पहला चरण केवल तैयारी था। अब साधक को बिंदु को देखते रहना है, पर आँखों को धीरे-धीरे ढीला करना है—तनावमुक्त, शांत, स्थिर। यहाँ एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्धांत कार्यरत है—

त्राटक में उद्देश्य आँखें नहीं हैं; 

उद्देश्य वह बिंदु है, जिसमें कोई भाव नहीं। रूप है किंतु भाव नहीं प्रकट हो रहा । 

साधक बिंदु को देखता है, मन भाव उत्पन्न नहीं कर पाता, क्योंकि बिंदु भावहीन है। (यदि उसमें कोई अनावश्यक कल्पित विश्वास पैदा कर दो तो बात दूसरी है) ।  उसकी पुरानी आदत है किसी भी दृश्य से भाव निकालना। जब यह संभव नहीं होता, तो मन फिर से आँखों की ओर लौटता है—और अब उसे दो अनुभूतियाँ मिलती हैं—तनाव और तनावरहितता के बीच का अंतर। और जब गुरु का निर्देश है कि बिंदु को देखते हुए आँखों को ढीला रखना है, तो धीरे-धीरे साधना के भीतर एक नयी कला जन्म लेती है—तनाव के बीच भी तनावरहित अवस्था का अनुभव ।  कर्म के मध्य निष्कामता का अनुभव । 

जब  साधक कई मिनटों तक अपने साधन को अनुभव करने में सक्षम होने लगता है , अर्थात् इंद्रियों को अनुभव करने में सक्षम होने लगता है तब उसके बाद की यात्रा और अद्भुद होने लगती है । 

और मन?

मन जब किसी भी वस्तु पर आवश्यक समय से अधिक एकाग्र होता है, तो उसकी स्मृति में एक छाप बन जाती है। जब मन आँखों के माध्यम से इस भावविहीन बिंदु पर टिकता है, और आँखों में ढीलापन बनाए रखता है, तब उसकी स्मृति में भावविहीनता की छवि अंकित होती जाती है।

यही त्राटक का वास्तविक उद्देश्य है—रूप के माध्यम से रूपहीनता की स्मृति स्थापित करना।

सामान्य जन के लिए यह मार्ग सरल इसलिए होता है कि यह रूप को आधार बनाकर रूपहीनता की ओर ले जाता है।

त्राटक केवल देखने का अभ्यास नहीं;

यह मन को भावों के आकर्षण से मुक्त करने की धीरे-धीरे विकसित होने वाली कला है।

और जब भाव शून्य होते हैं, तभी ध्यान रूपहीनता के क्षेत्र में प्रवेश करता है।

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