किसी भी साधना का सार केवल उसकी तकनीक में नहीं, बल्कि उसके पीछे छिपे दर्शन में रहता है। त्राटक भी इसी नियम का अपवाद नहीं है। यदि उसके मूल तर्क, उसके गहरे भाव और उसकी आंतरिक प्रक्रिया को समझे बिना उसे केवल एक तकनीक मान लिया जाए, तो उसका प्रभाव सीमित रह जाता है। त्राटक का उद्देश्य केवल आँखों को स्थिर करना नहीं है; यह मन की उस गहरी आदत को रूपांतरित करने की साधना है, जो निरंतर भावों, कल्पनाओं और रूपों में उलझी रहती है।
मनुष्य पाँच इंद्रियों में सबसे अधिक आँखों पर निर्भर करता है—यह आधुनिक युग में और स्पष्ट हो चुका है। दृश्य संसार रूप, रंग और आकार से बना है; इसलिए मन के लिए किसी भी दृश्य में भाव ढूँढ लेना अत्यंत आसान है। इसी कारण भक्ति पद्धति में रूप-ध्यान कराया जाता है, जहाँ किसी प्रिय रूप को देखकर सहज ही भाव उत्पन्न होते हैं।
परंतु साधना का मार्ग केवल भावों तक सीमित नहीं है; वह भावों के परे भी ले जाता है—वहाँ, जहाँ केवल “दृष्टा” बचता है, दृश्य नहीं। यद्यपि दृश्य के महत्व के समाप्त हो जाने पर दृष्टा शब्द भाव का भी लोप हो जाता है । दृष्टा स्वयं को दृष्टा नहीं बल्कि मुक्त आत्मा के रूप में अनुभव करने लगता है, अर्थात् उसे अहम ब्रह्मश्मि का अनुभव हो जाता ।
यही कारण है कि त्राटक साधक को ऐसे विषय पर दृष्टि टिकाने को कहता है, जिसमें कोई भाव न पैदा हो सके। जो ऐसा रूप और आकर न हो जिसमें मानवीय भाव हो । यद्यपि वह अज्ञानतावश एक बिंदु में शिव के भाव को जन्म दे देता है किंतु उसे त्राटक के उद्देश्य को बताया जाना चाहिए, ऐसा मेरा अनुभव है । जैसे—एक बिंदु। बिंदु में आकार तो है, परंतु उसमें कोई कथा, कोई स्मृति, कोई भाव उत्पन्न नहीं होते। जब आप बिंदु पर आँखें टिकाते हैं, तो मन के लिए वहाँ कोई भाव निकालना संभव नहीं होता। यहीं से त्राटक का वास्तविक दर्शन आरंभ होता है।
अब मन के सामने एक ऐसा विषय व बिंदु है जिसमें भाव नहीं है , आकर तो है किंतु कोई भाव नहीं है , यदि वह इस विषय पर अपनी आँखों को लगातार एक टक देखता रहता है तब उसका ध्यान अपनी आँखों के तनाव पर लौट आता है । वह इसलिए कि उस बिंदु के देखने पर कोई सुख के भाव पैदा नहीं हो रहा है । तो उसका ध्यान उन्ही आँखों के तनाव पर लौट आता है ।
अब मन मजबूरीवश केवल आँखों के तनाव को ही अनुभव करेगा । जब सामने का बिंदु भावविहीन है, तो मन उस साधन पर लौट आता है जिसके माध्यम से वह दृश्य को देख रहा है—यानी आँखों पर। अब साधक दो चीज़ें एक साथ अनुभव करता है: एक, आँखों में तनाव; दूसरा, उन्हें ढीला करने का अभ्यास। सामान्य साधक मात्र तनाव को ही अनुभव करता है ।
गुरु साधक को यही निर्देश देता है कि आँखों को तब तक बिंदु पर टिकाए रखो, जब तक आँखों से आँसू न आने लगें। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी मांसपेशी का अभ्यास तब तक करना, जब तक उसमें हल्का दर्द और पसीना न आने लगे।
यह त्राटक का पहला चरण है—जिसमें आँखों दृष्टा साधन की ओर लौटना प्रारंभ करता है जिसमें आँखों क्षमता की वृद्धि स्वतः ही होने लगती है । उसे चिकित्सीय लाभ स्वतः ही मिलने लगता है ।
साधना का दूसरा चरण
इसके बाद दूसरा चरण शुरू होता है। यहाँ साधना की गुणवत्ता बदलती है। अब साधक बिंदु को तो वही देख रहा है, किंतु आँखों को ढीला रखते हुए, तनावरहित करते हुए। अब आँखों पर दिए गए तनाव को उसने ढीला सीखना शुरू कर दिया । यह उसने कला जागृत किया क्योंकि गुरु ने कहा था कि ज़्यादा से ज़्यादा समय तक उस बिंदु पर आँखों और मन को टिकाये रखना है । इक्षानुसार समय तक टिकाये रखने के लिए आँखों की मांसपेशियों को ढीला करने की अक़्ल तो सीखना ही पड़ेगा ।
यही गुरु का मूल उद्देश्य होता है । उसे अपने साधन अर्थात् इन्द्रियों का आदर करना तो आना चाहिए । यदि ध्यान दें तो इसीलिए योद्धा भी अपने अस्त्रों और शस्त्रों की पूजा करते हैं । इसलिए नहीं कि शस्त्र स्वयं लड़ने लगेंगे , इसलिए कि उसके प्रति आदर जागे । उसी तरह आध्यात्मिक साधना में साधक अपने साधन इन्द्रिय और मन को आदर देता है तुक्ष नहीं समझता ।
किंतु कुछ साधना पद्धति में इस देह और मन को अत्यंत तुक्ष समझा जाता है जिसे विशेषकरके मैं तार्किक और ज्ञानात्मक रूप से स्वीकार नहीं का पाता हूँ ।
अब बिन्दु पर पुनः आते हैं । बिंदु अब भी भावहीन है—और मन, जिसे भाव पैदा करने की लत है, अब किसी भी दिशा में भाव नहीं ढूँढ पा रहा। इसलिए वह धीरे-धीरे एक नई अवस्था में प्रवेश करने लगता है—एक ऐसी अवस्था, जहाँ न दृश्य में भाव है, न देखने वाले में। ध्यान अब आँखों के तनाव और उनकी ढीलापन—इन दोनों के बीच की सूक्ष्म अनुभूति में उतरने लगता है।
कुछ समय बाद साधक की आँखें बिंदु को लंबे समय तक देखने लगती हैं, बिना तनाव के। यह केवल आँखों का व्यायाम नहीं है; यह मन की आदतें बदलने की प्रक्रिया है। मन जिस वस्तु पर एक निश्चित समय से अधिक टिका रहे, उसकी स्मृति में एक गहरी छाप—एक वृत्ति—उभरने लगती है। यहाँ वह छाप होती है भावविहीनता की छाप, एक ऐसी स्मृति जो मन को अपने ही भाव-संसार से थोड़ी दूरी दिलाने लगती है। कुछ महीनों के अभ्यास के बाद वह बिंदु दृष्टा के सामने से स्वतः ही हटने लगता है और आँखें ढीली और शांत बंद होने लगती है । अब साधक स्वयं के साधन की ओर लौटना सीखने लगता है ।
त्राटक का वास्तविक उद्देश्य यही है—बिंदु को देखना नहीं, बल्कि उस भावहीन अवस्था को अनुभव करना, जहाँ मन स्वयं को दृश्य से अलग कर लेता है। यही वह द्वार है, जहाँ से साधक रूप-रहित ध्यान की ओर प्रवेश करता है।
साधारण जन के लिए रूप-रंग, आकार और भावों में ध्यान लगाना सरल होता है। परंतु साधक को रूप से आगे बढ़ना होता है, और त्राटक उसी दिशा का साधन है—आँखों की स्थिरता के माध्यम से मन को स्थिरता देना, और मन को स्थिरता देकर उसे भावों से परे ले जाना।
इस प्रकार त्राटक केवल तकनीक नहीं, बल्कि दर्शन है—दृष्टि को रूप से हटाकर रूपहीनता की ओर ले जाने का दर्शन।
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