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नकारने के पीछे का मूल उद्देश्य

1 week ago By Yogi Anoop

नकारने के पीछे का मूल उद्देश्य
(ध्यान वर्कशॉप: अंतर्चिकित्सा का विषय)

स्वीकारना हो या नकारना — इन दोनों का अंतिम लक्ष्य केवल एक ही होता है: अपने “स्व” की अनुभूति।

हर विचार, हर प्रतिक्रिया — चाहे वह संसार को नकारने की हो या किसी मूल्य को स्वीकारने की — भीतर गहराई में केवल एक ही चेष्टा काम कर रही होती है: “मैं” को अनुभव करना, अपने होने को प्रमाणित करना।

यहाँ तक कि जब कोई व्यक्ति क्रोधित होता है और चिल्लाने जैसी आवाजें निकालता है — तो आख़िर क्यों?

वह इसलिए, क्योंकि वह उस चिल्लाहट के माध्यम से दूसरों को अपने होने का जबरन एहसास कराना चाहता है। यहाँ तक कि भय की स्थिति में भी वह कुछ ऐसा ही प्रयास कर रहा होता है।

जब हम किसी की बुराई कर रहे होते हैं, तब भी भीतर ही भीतर स्वयं को बेहतर (स्वयं के होने) अनुभव करने का प्रयास कर रहे होते हैं। “मैं” स्वयं को कमजोर व दूसरों से कमतर अनुभव करता है, इसीलिए स्वयं के अस्तित्व शक्तिशाली और ज्ञानात्मक अनुभव करने के लिए दूरों की बुराई करते हैं । दूसरों का मज़ाक उड़ाने में भी ऐसा ही कुछ रहस्य छिपा हुआ होता है । 

कुछ इसी प्रकार, आध्यात्मिक साधना में “नेति नेति” जैसे साधनों को अपनाया गया। वह इसीलिए कि नकारात्मक पक्ष से जीवन यात्रा करने का स्वभाव कहीं न कहीं सभी में विद्यमान होता है।

ध्यान दें गुरुओं के अनुसार नकारात्मक स्वाभाव के विपरीत जाकर कर साधना करना थोड़ा कम उपयुक्त होता है — इसलिए गुरुओं ने “नेति नेति” जैसे साधनों का उपयोग किया होगा । ऐस मुझे प्रतीत होता है । इसीलिए ऋषियों ने कि जिस मार्ग में तुम अभ्यस्त हो उसी मार्ग में आध्यात्म की खोज करो ।  

जैसे इस यह देह मल मूत्र का घर है इसे अनुभव करो, पंचमहाभूतों से युक्त इस देह और इन्द्रियों के प्रति यह अनुभव करो कि — “यह मैं नहीं हूँ।” अर्थात् नेति नेति का आनुभविक अभ्यास करो । यद्यपि इसका अभ्यास सिर्फ़ मानसिक जाप के रूप में होने लगा है जो कि मेरे अनुभवानुसार उचित नहीं है । जब अपने ही कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों जो अनुभव क्षेत्र में है , जिसे आप प्रत्यक्ष अनुभव करने में सक्षम हैं , उसे यह यह अनुभव करो कि यह मैं नहीं हूँ । “मैं अनुभवकर्ता तो हूँ किंतु “मैं” यह नहीं हूँ। यही नेति नेति है । धीरे धीरे कई वर्षों तक के अनुभव के बाद “मैं” का दृश्यों से संबंध में एक दूरी का अनुभव सदा के लिए बन जाता है । 

यह दूरी देह में आने वाले सभी अनावश्यक खिंचाव को समाप्त कर देता है , यहाँ तक देह और इन्द्रियों में होने वाले इंफ्लेमेशन को भी समाप्त करने में सक्षम है । वह इसलिए क्योंकि “मैं देह के लिए नहीं बल्कि देह और इन्द्रियों के माध्यम से मैं स्वयं को अनुभव करने में सक्षम हो सकता हूँ । “मैं” के पास दो साधन है , या इंद्रियों के माध्यम से व देह व इन्द्रियों को अनुभव करे व उसी देह व इन्द्रियों के माध्यम से स्वयं का अनुभव करे । 

नेति नेति के माध्यम से “मैं” की दृश्य (मन-इन्द्रियाँ और देह) से अलगाव का अनुभव होना प्रारम्भ होना शुरू हो जाता है । यह सिद्धांत सिर्फ़ अलगाव के अनुभव के लिए ही है । जैसे ही अलगाव का अनुभव होने लगता है , वह स्वयं की अनुभूति ही करना प्रारंभ कर देता है । मैं हूँ मैं हूँ ।  

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