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मन-मस्तिष्क का सीखना

2 years ago By Yogi Anoop

मन-मस्तिष्क का सीखना 

मन मस्तिष्क को सबसे अधिक अनुभव वही होता है जहां पर मध्यम दर्जे अथवा कम से कम समस्या हो । 

मेरे अनुभव में यदि शरीर, मस्तिष्क व समाज में बहुत अधिक तीव्रता में समस्या है तो उसे मैनेजमेंट करने में वह डर जाता है । क्योंकि पूर्व में उसे उस प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा । संभवतः इसीलिए वह डर जाता है । और समस्या से भागने लगता है । 


मेरे अनुभव में, योग आसन के दौरान इस देह में तनाव की मात्रा बहुत कम से कम रखी जाये , और उस तनाव को अधिक समय तक रखा जाये तो मन को बहुत अधिक ज्ञान और अनुभव प्राप्त होने लगता है । क्योंकि शरीर में दिया गया तनाव बहुत कम दर्जे का है । उस कम दर्जे के तनाव को अच्छी तरह से अनुभव करना बहुत आसान होता है । मन को मस्तिष्क में  उस तनाव का अनुभव बहुत गहराई में हो सकता है । किंतु वहीं पर आसान करते समय यदि बहुत तीव्र मात्रा में दर्द की मात्रा को बढ़ा दिया जाता है तो तो मन मस्तिष्क अनुभव करने के बजाय उस तीव्र दर्द से बचने की कोशिश करने लगते हैं । इसीलिए इस प्रकार की क्रियाएँ ऊर्जा का के अनुभव को बढ़ाती नहीं हैं। 


सामान्यतः दर्द को हम नकारात्मक कहते हैं किंतु यह दर्द शरीर में रोगों के द्वारा दिया हुआ नहीं है । यह दर्द इस देह के स्वामी के द्वारा दिया गया है । यह दर्द इसलिए दिया गया है कि दर्द ही दर्द की दवा है । दर्द के पैदा करने से सभी सुषुप्त कोशिकाएँ बाहर जागृत हो जाती हैं । 

 

इसी प्रकार मन के अंदर जितने भी नकारात्मक विचार होते हैं वे भी मूल स्वभाव में ही गिने जाते हैं । सकारात्मक और नकारात्मक विचार मन का मूल स्वभाव है । ये दोनों ही मन का मूल स्वभाव है । बिना इन दोनों के जीवन यापन संभव ही नहीं हो सकता है । 

ध्यान दें सामाजिक व्यवहार में सबसे अधिक नकारात्मक परिस्थितियों से सामना करना पड़ता है । वे नकारात्मक परिस्थियाँ ही मन मस्तिष्क के अंदर उन उन नकारात्मक विचारों को निकालती हैं जो पहले से ही सूक्ष्म रूप में अंतरतम में मौजूद होती हैं । ये सभी नकारात्मक विचार ही सकारात्मक को विचार को दृढ़ करने में सहायता देते हैं । 

ध्यान दें व्यवहार में सकारात्मक विचारों की दृढ़ता जितनी मज़बूत होती जाती है उतना ही संस्कार में उनकी पैठ बढ़ती जाती है । यही मन मस्तिष्क के अंदर लड़ने की शक्ति प्रदान करता है । 

इसीलिए मैं परिस्थितियों का सामना करने की बात करता हूँ , चाहे वाज शरीर के अंदर हो , मन के अंदर हो अथवा समाज के अंदर हो । सभी से लड़ने की प्रक्रिया हूँ चाहिये , किंतु लड़ने का तरीक़ा व्यावहारिक ही होना चाहिए । 

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