मनुष्य का अंतर्तम स्वभावतः विचारों का निर्माता है। वह अपने मन के द्वारा चित्रों और विचारों के माध्यम से भावों को प्राप्त करता रहता है । यह अंतरात्मा जागृत अवस्था में मन के माध्यम से भावनात्मक सुख को इतनी तीव्रता विचार और चित्रों को उत्पन्न करता है कि मनुष्य स्वयं में उस्सा हुआ महायुद्धों करने लगता है ।
ऐसे विचार उत्पन्न करता रहता है कि अंततः उन्हीं विचारों के जाल में उलझ जाता है। यह एक गहरा सत्य है कि दैनिक जीवन में मन कोई नया सृजन नहीं करता; वह तो केवल बने बनाये व पुराने विचारों के अनुभवों, स्मृतियों और संस्कारों की दीवारों पर लगे कीलों को चमकाता रहता है । उसी पर नए भ्रमों और अनावश्यक विचारों का निर्माण करता रहता है। इसी सक्रियता और अव्यवस्था को देखते हुए गुरु परंपरा में एक उपाय खोजा गया—मंत्र।
मंत्र का मूल उद्देश्य मूलतः मन को एक दिशा देते हुए मन्त्रक (मंत्र करने वाले स्वयं) को प्राप्त करना था । वह विचारों की अनियंत्रित और दिशाहीन अनावश्यक भीड़ से हटकर एक बिंदु पर टिक सके। किसी एक ध्वनि, एक शब्द, एक कंपन पर मन को स्थिर किया जाए, ताकि वह स्वयं को अनुभव करने की क्षमता तक पहुँच सके। लेकिन इतिहास में एक विचित्र मोड़ आया—मानव की जल्दबाज़ी और संतों-गुरुओं की नादानी ने मंत्र-जप की मूल भावना को बदलकर रख दिया।
समय के साथ-साथ मंत्र को जीवन के प्रत्येक क्षण में जोड़ देने की प्रवृत्ति बढ़ी। जैसे—
भोजन करते हुए भी मंत्र का जप,
चलते हुए भी मंत्र का जप,
बात करते, काम करते, सोते-जागते निरंतर मंत्र का जप,
और ऊपर से यह आग्रह कि जप की गति तेज़ होनी चाहिए—तेज़, और तेज़, ताकि इष्ट-देवता शीघ्र प्रकट हों, ताकि परमात्मा मिल जाए, ताकि कोई दिव्य अनुभूति हो जाए।
यहीं से गलती शुरू हुई।
मंत्र का लक्ष्य बदल दिया गया।
मंत्र—जो मन को विचार से मुक्त करने का मार्ग था—अब देवी-देवताओं के दर्शन कराने का साधन बना दिया गया।
जब लक्ष्य ही बदल गया, तो साधना भी विकृत हो गई।
निरंतर मंत्र-जप को जीवन की प्रत्येक क्रिया में डाल देने से मन की संरचना पर उल्टा प्रभाव पड़ने लगा। जहाँ मंत्र का उद्देश्य था—मन को मौन की ओर ले जाना, वहाँ वह मन को और भी सक्रिय, अधिक यांत्रिक, अधिक तनावपूर्ण बनाने लगा। जब जप को एक मशीन की तरह हर पल चलाना हो, तो मन स्वयं को कभी विश्राम नहीं देता; वह थकता है, टूटता है, और तनाव को साधना समझ बैठता है।
सत्य यह है कि मंत्र का मूल सिद्धांत अत्यंत सरल और अत्यंत गहरा है—
मंत्र विचारों की भीड़ को रोककर मन को विचार-रहित अनुभव की ओर ले जाता है।
मंत्र के माध्यम से अंततः “मंत्रक”—अर्थात् उस ध्वनि की उपस्थिति, उस कंपन्न का अस्तित्व—अनुभूत होना चाहिए।
मंत्र जप शब्द का पुंज नहीं है; वह अनुभव की एक यात्रा है।
यदि यात्रा के उद्देश्य को बदल दिया जाए, तो मंत्र साधक लाभ नहीं, हानि ही अनुभव करता है—
मन और अधिक बेचैन हो जाता है,
भावनाएँ असंतुलित होने लगती हैं,
और ध्यान के स्थान पर तनाव खड़ा हो जाता है।
मूल सत्य यही है कि मंत्र का लक्ष्य ईश्वर को “देखना” नहीं, बल्कि स्वयं को “देखने योग्य” बनाना है।
मंत्र, मन को शांत करके उस मौन क्षेत्र में ले जाता है जहाँ विचारों का हस्तक्षेप समाप्त होता है, और आत्मानुभूति का द्वार खुलता है।
मंत्र का प्रभाव तब आता है जब वह मन को सीमित करता नहीं, बल्कि मुक्त करता है।
जब वह विचार की निरंतरता नहीं, बल्कि मौन की गहराई उत्पन्न करता है।
और जब उसकी पुनरावृत्ति आपको देवता के दर्शन नहीं, बल्कि स्वयं की उपस्थिति का अनुभव कराती है।
यही मंत्र-जप का सच्चा दर्शन है।
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