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मन को स्विच कैसे करें ?

1 week ago By Yogi Anoop

प्रत्याहार की सिद्धि: योगी अनूप और उनके शिष्यों के साथ एक संवाद

शिष्य: गुरुदेव, आपने अपने एक लेक्चर में मन को संभालने के साथ साथ प्रत्याहार का ज़िक्र किया था। कृपया बताइए कि प्रत्याहार में वह “स्विचिंग” (attention shifting) कैसे होती है? जैसे आप कहते हैं कि मन को एक स्थिति से दूसरी स्थिति में लाना — यह कैसे संभव है?

योगी अनूप: बहुत अच्छा प्रश्न है। देखो बेटा, बच्चों को स्विच कराना बहुत आसान होता है क्योंकि उनकी जानकारी सीमित होती है। वे किसी एक वस्तु पर एकाग्र होते हैं, और जब आप वह वस्तु छीनकर उन्हें कोई दूसरी वस्तु दे देते हो, तो वे उसी में थोड़े समय के लिए रम जाते हैं। उनकी यह अटेंशन शिफ्टिंग आसानी से हो जाता है । वह थोड़े समय के लिए रोटा होगा किंतु कुछ पल के बाद दूसरे वस्तु से खेलने लग जाता है अर्थात् मन उस वस्तु में एकाग्र हो जाता और पहले वाली छीनी गई वस्तु को भूल जाता है । किंतु हमारी — वयस्कों की — सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे मन की एकाग्रता (ध्यानकाल) का समय लंबा होने के साथ साथ विवेक से नियंत्रित नहीं होता है । वह जिस वस्तु व जिस विचार में फँसता है उससे बाहर निकल नहीं पाता है । वह विचार लगातार चलते रहता है । 

इसीलिए मन जिस वस्तु पर ध्यान केंद्रित करता हैं, उसे छोड़ना मुश्किल होता है — चाहे वह विचार नकारात्मक हो या सकारात्मक। मान लो कोई व्यक्ति भक्ति में डूबा है, और मैं कहूँ कि अब मन हटाओ, तो वह कर ही नहीं सकता। वाह अपने उस भावनाओं के सागर से स्वयं को निकालने में समर्थ नहीं हो पाता है । वही भावना, वही विचार चलता रहता है, घंटों चलता रहता है। मूल कारण है कि उसके मन में जो वैचारिक धारा चल पड़ती है उसे रोकना तो छोड़ों, वह मन को अन्य स्थान पर स्विच भी नहीं कर पाता है । अर्थात् अपनी एकाग्रता को कहीं और शिफ्ट कर दे ।  यही समस्या नकारात्मक वृत्ति के लोगों को भी होती है जो चाहने के बावजूद भी विचारों को हटा नहीं पाते हैं और भविष्य में यही उनके अनेक मानसिक रोगों का कारण हो जाती है । 

शिष्य: तो गुरुदेव, क्या यह हमारी मानसिक प्रवृत्ति का दोष है?

योगी अनूप: दोष नहीं, प्रवृत्ति कह सकते हो। दरअसल, हम उसी विचार से चिपकते हैं जिसे हमने खुद रचा होता है — चाहे वह मरने का भाव हो या जीने का हो । वह विचार या तो बहुत अच्छा लगने लगता अथवा वह विचार इतना घृणित होता है कि उससे मन को हटाना संभव नहीं हो पाता है , और परिणाम यह होता है कि मन के निरंतर एक ही विषय पर अनियंत्रित रूप से चलने पर मस्तिष्क थक जाता है , साथ साथ इन्द्रिय और देह प्रमुख अंग थकने प्रारंभ हो जाते हैं । यही से रोग का प्रारंभ होता है ।  

किंतु जब हम अपने ही स्वरचित विचारों को ‘स्विच’ करते हैं, तो हम उस चिपकने की प्रवृत्ति से थोड़ा दूर हटते हैं। उन विचारों और भावनाओं में डूबने के पहले ही स्वयं को बाहर निकाल पाने में समर्थ हो पाते हैं । यह एक योगिक कला है । चाहे हम ज्ञान के आधार पर स्विच करें व एकाग्रता की शक्ति के आधार पर स्विच करें , हमे स्विच करना ही पड़ता है अन्यथा तनाव बढ़ता है । 

ज्ञान की तकनीक होती है ‘विभाजन’ — जिसमें आप कह देते हो कि ‘यह मैं नहीं हूँ’। लेकिन प्रत्याहार में आप ‘स्विच’ करते हो — यानी आप एक विचार से निकलकर दूसरे में प्रवेश करते हो, उसी एकाग्रता का उपयोग करते हुए । यही है मस्तिष्क का प्रबंधन — यही है योगिक प्रबंधन जिसमें इन्द्रियों को , मन को विचारों व भावनाओं के सागर से निकालना सिखाते हैं । ।

शिष्य: गुरुदेव, ये तो बहुत व्यावहारिक बात लगती है। क्या इसका कोई उदाहरण दे सकते हैं?

योगी अनूप: बिल्कुल। कभी-कभी ऑफिस में बहुत समस्याएँ आती हैं। आप उन्हें इग्नोर करते हो और किसी और कार्य में लग जाते हो — यही स्विचिंग है, इसी को अटेंशन शिफ्टिंग कह सकते हैं । देखो बेटा, जो ऑफिस में हज़ारों लोगों को सँभालता है, उसकी स्विचिंग क्षमता सबसे अधिक होती है। और यदि यह क्षमता उसके पास नहीं हो, इसका अर्थ है उसमें हजारों लोगों को मैनेज करने की क्षमता नहीं है । ।

आप कार ड्राइव कर रहे होते हैं, बहुत सारे विचार दिमाग़ में चल रहे होते है , किंतु आप उन विचारों को हटाकर अपना ध्यान , अपनी एकाग्रता कार के चलाने पर लगाते हैं । यह व्यावहारिक है , यदि इस व्यवहार को नहीं समझोगे तो मन के व्यवहार को नहीं समझ पाओगे । 

शिष्य: गुरुदेव, तो क्या ऐसी स्थिति में हम प्राणायाम का सहारा ले सकते हैं?

योगी अनूप: प्राणायाम का सहयोग परिस्थिति व घटनाओं के पूर्व मन को शांत करने के लिए ही किया जा सकता है ताकि परिस्थितियों का सामना अच्छी तरह से हो सके किंतु घटित घटनाओं के सामने मन को प्राणायाम में स्विच करना मूर्खता है । वर्तमान में मन के सामने जो भी परिस्थितियां उत्पन्न हो उसे उसी मन के द्वारा ही नियंत्रण में लाने का विचार करना चाहिए । 

जैसे एक बार मैं एक अरब देश में गया था, वहाँ बहुत बड़े घर में मुझे खाने पर बुलाया गया था । रात के एक बजे जिस घर में ठहरा हुआ था वापस आया , जैसे ही कार से उतरा तो बड़े बड़े कुत्तों ने घेर लिया । उनके बड़े से घर में चार-पाँच बड़े कुत्ते छोड़ हुए थे । उन सभी मेरे पास आने के लिए दौड़े । 

मैं ऐसी स्थिति में नहीं था कि कार में वापस भाग कर बैठ सकूँ । ड्राइवर ने भी कार में ही बैठकर कोई सहयोग नहीं दिखाया । और मैं बाहर ही अकेला खड़ा । 

अब उस स्थिति में क्या मैं प्राणायाम करने लगता ताकि डर न लगे? अथवा मेरा बचाव हो जाये ! यदि मैं ऐसा करता, तो यह खुद को धोखा देना होता। मैं भीतर से डर रहा था — बिल्कुल स्पष्ट डर था — परंतु मैंने उसे अपनी आँखों में, चेहरे पर, या शरीर की भाषा में आने नहीं दिया। यहाँ उस स्थिति को मैनेज करना था । मैंने अपने हाथ से इशारा करते हुए उन कुत्तों को प्यार से बुलाना शुरू कर दिया , मैंने पूरा प्रयत्न लगा दिया कि उन्हें यह लगे कि मैं उनका मित्र हूँ । और वे सभी मेरे पास आए और मैंने उन्हें पुचकारा , छुआ और प्यार किया ।  

शिष्य (आश्चर्य से): गुरुदेव, तो क्या आपने अपने अंदर के भय को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया था ? डर चला गया?

योगी अनूप: नहीं, भय था। पूरी तरह से भय अंतर्तम में छिपा था किंतु उस वर्तमान में मैनेजमेंट इतना अच्छा था कि वह भय बाहर की ओर दिख नहीं रहा था । भय को पूर्णतः समाप्त नहीं किया जा सकता है , वह जन्मजात है , यदि उसे नहीं होना होता तो वह जन्म से नहीं होता । वह मनुष्यों द्वार निर्मित नहीं है । वह स्वभावगत है । आपका कार्य उन तथाकथित नकारात्मक विचारों व तत्वों को समाप्त करना नहीं है बल्कि अपने मन मस्तिष्क पर हावी होने नहीं देना है । भय अंदर कहीं न कहीं होता है, किंतु आप उसे बाहरी स्थितियों पर हावी नहीं होने देते। जब परिस्थिति सँभल जाती है, तो भय स्वतः ही चला जाता है। 

मूल बात यह है कि कोई भी विचार मन के द्वारा चले तो वह चलता ही रहे , यह उचित नहीं । न तो मन के लिए और न ही देह के लिए । उसे या तो रोक दो अथवा स्विच करवा दो । यहाँ पर वर्तमान में मैनेजमेंट व प्रबंधन की उपयोगिता बहुत मायने रखती है ।  मैनेजमेंट का अर्थ है कि परिस्थिति के अनुरूप आपका व्यवहार हो , विचार भी उसी के अनुरूप ही चलें । न कि विचार व्यवहार से भिन्न हो जाएँ । आप समस्या में हो और आप अपने विचार रोकने लगें व विचारों को दूसरे स्थान पर स्विच करने का प्रयत्न करने लगें , यह भी उचित नहीं है । 

ध्यान दें अनियंत्रित विचारों की निरंतरता को तोड़ने का बस कुछ ही उपाय होते हैं ; या तो व्यवहार में , वर्तमान में अच्छी तरह से सहभागी हो जाओ अथवा ध्यानात्मक अवस्था में जाकर मन को शून्य कर दो । प्रत्याहार ध्यान के पहले चरण में है जिसमें “स्विच करने की क्षमता सिखाई जाती है , इसमें ही आत्म-संयम की पहली परीक्षा है। प्रत्याहार केवल इन्द्रियों को रोकना नहीं, मन की पूरी जीवन-शैली को संतुलित करना है।


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