मन एक सतत तत्व है — वह पानी गतिशीलता, अपने इन्द्रियों और मस्तिष्क के सूक्ष्म तंत्रों के माध्यम से बढ़ाता है । मन जितना तीव्र गति में अर्थात् सोचने विचार व कल्पना करें कि गति है उतना ही मस्तिष्क के सूक्ष्म तंत्र गतिशील होते हैं । स्वयं के द्वारा निर्मित विचारों, इच्छाओं, स्मृतियों में रमन करने की तीव्रता जितनी अधिक होती है , उतना ही तीव्रता देह के प्रमुख अंगों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भी होनी प्रारंभ हो जाती है ।
चूँकि यह सतत् ‘करने’, ‘सोचने’, ‘सहेजने’ और ‘बदलने’ की प्रक्रिया में लिप्त रहता है तो स्वयं को हमेशा ही इन्ही की चारदीवारियों में बँधा हुआ पाता अहि । परंतु प्रश्न यह है कि क्या मन का कोई ऐसा क्षितिज भी होता है जहाँ वह स्वयं को इन सभी चारदीवारियों से स्वयं को पड़े कर सके । कुछ वैसे ही जैसे मकड़ी जाल बुनते बुनते स्वयं को उससे निकाल नहीं पाती है । क्या वह अपनी ही सीमाओं को पहचानकर अपने (स्वयं मन) को समाप्त कर सकता है? क्या वह मकड़ी स्वयं को क्रिया से बाहर करके जाल बुनना ही बंद कर सकती है ।
यही वह स्थिति है जिसे मैं मन का चरम शिखर कह सकता हूँ — जब मन अपनी ही गति, दिशा और अस्तित्व को पहचानकर स्वयं को शून्य कर देता है। यह मनोशून्यता कोई अवसाद या निष्क्रियता नहीं है, बल्कि वह अन्तरतम में मन का ज्ञानात्मक विसर्जन है जिसमें मन की गति स्थिर व समाप्त हो जाती है और वहाँ केवल स्वयं के अस्तित्व अर्थात “मैं” के होने की अनुभूति बचती है — उस स्थिति में कोई विचार नहीं, कोई अन्य नहीं, केवल स्वभाविक उपस्थिति शेष रह जाती है। यही वह बिंदु है जहाँ विवेक और ज्ञान की ज्योति स्वतः प्रकट होती है, बिना किसी बाहरी साधन या अभ्यास के।
इस स्थिति का मनोवैज्ञानिक और चिकित्सकीय पक्ष
मन की यह पराकाष्ठा केवल एक दार्शनिक अनुभव नहीं है, यह उन मानसिक बीमारियों की भी गहरी समझ दे सकती है जो आज समाज में व्यापक होती जा रही हैं — जैसे कि चिंता, अवसाद, द्वंद्वात्मकता, स्वयं के अस्तित्व का संकट (self selfexistence) , आत्मसंदेह आदि।
मानसिक रोगों की जड़ में एक मूल प्रवृत्ति होती है — मन के द्वारा बनायी गई परिधि (चित्र व कहानी) व कहानियों के माध्यम से भावनाओं के भीतर फँस जाना, बिना यह जाने कि वह क्या है और किस दिशा में जा रहा है। कुछ वर्षों के बाद मन की लत उन्ही भावनाओं में फँसने की हो जाती है । और उसी में जीवन के रहस्यों को भी ढूँढने की सोच उत्पन्न होने लगती है । यही कारण है कि वह स्मृतियों , और कल्पनाओं से बाहर नहीं निकल पाता है । वह स्वयं को इस परिधि के बाहर ले जा पाने की सोच भी नहीं पाता है ।
जब विचार लगातार चलते हैं, जब स्मृतियाँ और भावनाएँ अनियंत्रित रूप से सक्रिय रहती हैं, जब व्यक्ति अपनी ही मानसिक संरचना को देखने में असमर्थ होता है — तब तनाव, भय और भ्रम जन्म लेते हैं।
लेकिन जब मन स्वयं को देखने लगता है — निःसंग दृष्टा के रूप में अर्थात् जब वह निर्माण की क्रिया ही बंद कर देता है — तब वह अपनी सीमाओं को पहचानने लगता है। यह स्व-निरीक्षण की प्रक्रिया धीरे-धीरे उसे उस शिखर की ओर ले जाती है जहाँ वह स्वयं को मिटा देता है — और यह मिटना कोई नाश नहीं है, यह शुद्ध अवस्था है — आत्मस्थिति। यहाँ पार यह ध्यान देना है कि मन का शिखर बिंदु उसकी कल्पनाओं का चरम ना होकरके मन का कल्पनाओं को बंद का देना ही होता है ।
“मन” का लोप और “मैं” की अभिव्यक्ति
जैसे ही मन का लोप (शून्य) होता है वैसे ही मैं की अनुभूति होती है , वह इसलिए क्योंकि अभी तक तो मन स्वयं द्वारा रचित स्मृतियों व कल्पनाओं में रम करके उससे भावनात्मक सुख की अनुभूति कर रहा था । किंतु जैसे ही शून्यता की स्थिति में आता है वैसे ही “मैं” की अनुभूति होनी प्रारंभ होने लगती है । या ज्ञानात्मक भाषा में इसे यूँ कह सकते हैं जैसे ही “मैं” की अनुभूति होनी प्रारंभ होती है वैसे ही “मन’ का विलय शुरू हो जाता है ।
यद्यपि यह अनुभव किसी सामान्य व्यक्ति को हो जाये तो वह इसे डिप्रेशन व कोई मानसिक रोग समझ बैठेगा । वह भड़काएँगे हो सकता है कि संसार से वह अलग हो जाएगा । किंतु यह स्थिति अवसाद या रिक्तता नहीं है, क्योंकि वहाँ भय नहीं है, चाह नहीं है, पहचान की चिंता नहीं है — वहाँ केवल शुद्ध उपस्थिति है, जो किसी नाम, रूप, भावना या विचार से परे है। यही अवस्था मानसिक चिकित्सा के क्षेत्र में सबसे ऊँची औषधि बन सकती है, बशर्ते इसे समझा जाए।
मेरे द्वारा किए गए सभी चिकित्सा में इसी स्थिति को अनुभव करने की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से होती ही है । वह इसलिए क्योंकि अन्तरतम की आवश्यकता ही यह है । इस आवश्यकता की पूर्ति के बिना पूर्ण समाधान नहीं मिल सकता है । इसीलिए मैं इसे चिकित्सीय दृष्टि से मानसिक समस्याओं के निवारण की सर्वोच्च औषधि मानता हूँ । क्योंकि यही मन के अंतिम व पूर्ण विश्राम की शिखर चोटी (अवस्था) है
यही अवस्था समस्त मनोविकारों (सर्वोच्च मनोविकार स्वयं के अस्तित्व की अनुभूति न कर पाना है) की जड़ को काट सकता है।
Copyright - by Yogi Anoop Academy