ध्यान और आत्मबोध के पथ पर चलते हुए बहुत से साधक एक प्रसिद्ध वाक्य से गुज़रते हैं: “मैं कुछ नहीं हूँ”, “मैं शून्य हूँ”। यह सुनने में अत्यंत रहस्यमयी और गूढ़ लगता है, मानो कोई अंतिम सत्य मिल गया हो। किंतु क्या वास्तव में “मैं” शून्य है?
मेरे अपने अनुभव में न तो “मैं कुछ नहीं हूँ”, और न ही “मैं शून्य हूँ”। क्योंकि वह जो यह कह रहा है — वह है। वह अस्तित्व में है। यदि “मैं” कुछ नहीं होता, तो इस “कुछ नहीं” की घोषणा करने वाला कौन है?
“मैं दृश्य नहीं हूँ” — यह सत्य के अधिक निकट है। क्योंकि “मैं” उन सब दृश्यों, विचारों, स्मृतियों और अनुभवों का बोधक है। वह स्वयं दृश्य नहीं है, वह उन्हें देखता है। इस दृष्टा को अगर हम “कुछ भी नहीं” कह दें, तो यह एक गहरी विसंगति होगी।
एक उदाहरण:
कल्पना करें कि एक चलचित्र (movie) चल रहा है। उसमें दृश्य बदलते रहते हैं — कभी युद्ध, कभी प्रेम, कभी मौन, कभी कोलाहल। लेकिन वह पर्दा, जिस पर ये सब चलते हैं, स्वयं दृश्य नहीं होता। वह तो केवल सभी दृश्यों को धारण करता है। यदि कोई कहे कि पर्दा “कुछ नहीं है” — तो क्या यह न्याय होगा?
“शून्य” एक विशेष अवस्था है — जो दृश्यहीन अवस्था है, जहाँ कोई दृश्य नहीं ऐसा दृष्टा को अनुभव होता है । ऐसा इसीलिए क्योंकि दृष्टा के द्वारा दृश्यहीन अवस्था उत्पन्न की जाती है जिसमें वह विचारों को एवं भावनाओं को उत्पन्न ही नहीं कर पाता । विचारों और भावनाओं को उत्पन्न होने के लिए दृष्टा को किसी दृश्य का सहयोग लेना पड़ता है किंतु दृष्टा ने अपने सामने से दृश्य समाप्त करके एक शून्य काल की कल्पना कर ली है । सत्य तो यह है कि शून्य भी एक दृश्यहीन कल्पना है । यह शून्य और कल्पना दोनों एक दूसरे के विरोधाभासी हैं । किंतु यह सत्य है , इसे एक उदाहरण से सिद्ध किया जा सकता है ।
जैसे दृष्टा के द्वारा अन्धाकार का अवलोकन करने पर शून्यता का आभाष होता है । यद्यपि उस अंधकार में शून्यता है नहीं किंतु दृष्टा के द्वारा एक अंधकार की कल्पना करके दृष्टि अवस्था को लाया जाता है । वह इसके माध्यम से विचारविहीन हो जाता है , शून्यता को प्राप्त कर लेता है किंतु सत्यता में उस अन्धाकार के अंदर भी बहुत सारे दृश्य मौजूद थे ।
मूल सत्य तो यह है कि वह अदृश्य , व वह शून्य दिखता ही नहीं , उन दो तत्वों के मध्य शून्य व ख़ाली स्थान दृष्टा के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण से दिखने योग्य नहीं है किंतु दृष्टा उस अवस्था की कल्पना करता है । जैसे अंधकार की कल्पना करना । यह दृष्टा के द्वारा एक ऐसी कल्पना है जो दृष्टा को दृश्यहीन अवस्था में स्थित सा हो जाता है । अर्थात् विचार शून्य हो जाता है ।
दृष्टा इसी शून्यता का साक्षी होता है किंतु वह शून्य नहीं होता है ।
इसलिए यह स्वतः सिद्ध है कि “मैं” शून्य न होकर शून्य का साक्षी हूँ — यह एक मौन किंतु पूर्ण बोध है। जब यह बोध स्थिर होता है, तो उसके द्वारा रचित समस्त दृश्य — चाहे वे विचार हों, स्मृतियाँ हों या कल्पनाएँ — स्वतः ही शांत हो जाते हैं।
अंततः यह सिद्ध है कि जब दृश्य नहीं होते, जब विचार नहीं होते, तब भी “मैं” — वह साक्षी — बना रहता है। ध्यान की प्रक्रिया का उद्देश्य यह समझना नहीं है कि “मैं कुछ नहीं हूँ” — बल्कि यह प्रत्यक्ष अनुभव करना है कि “मैं हूँ”, लेकिन मैं वह नहीं हूँ जिसे मैं अब तक समझता आया हूँ।
यह अंश आगामी ध्यान वर्कशॉप में “साक्षीभाव की सुस्पष्टता” विषय के अंतर्गत विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया जाएगा।
Copyright - by Yogi Anoop Academy