स्वानुभूति का दर्शन: स्वयं का अनुभव संभव है !
प्रश्न: गुरुदेव, आप कहते हैं कि “जिसका अनुभव हो रहा है, वह मैं नहीं हूँ”—क्या इस वाक्य को हम निषेध की दृष्टि से समझ सकते हैं?
योगी अनूप: हाँ, बिल्कुल। यह वाक्य वास्तव में आत्मा की प्रकृति को जानने की एक अत्यंत सूक्ष्म और दार्शनिक पद्धति का संकेत है, जिसे ‘निषेध मार्ग’—यानी नेति-नेति—कहा गया है। जब हम यह कहते हैं कि “मैं वह नहीं हूँ”, तो यह एक गहन आंतरिक परीक्षण की शुरुआत है। जैसे—आप भोजन करते हैं, इसका अर्थ यह है कि आप भोजन से अलग हैं, यहाँ तक कि उस भोजन के स्वाद अर्थात् गुणों से भी अलग हैं क्योंकि आप स्वाद के अनुभवकर्ता है ।
लेकिन यहीं पर रुकिए नहीं—आप स्वाद को किन किन साधनों के माध्यम से अनुभव कर रहे हैं? इंद्रियों से अर्थात् जिह्वा के माध्यम से । तो यहाँ पर यह भी सिद्ध हुआ कि कि आप वे सभी इन्द्रियाँ अर्थात् जिह्वा भी नहीं हैं, क्योंकि आप जिह्वा के माध्यम से अनुभव कर रहे हैं ।
इस प्रकार, जिसे आप अनुभव कर सकते हैं—चाहे वह वस्तु हो, इंद्रिय हो, विचार हो या भावनाएँ—आप उनसे भिन्न हैं। यही नेति-नेति है: “न यह, न वह।”
प्रश्न: किंतु जब मैं आत्मानुभव की बात करता हूँ तो इसका क्या तात्पर्य है । क्योंकि इसमें तो स्वयं की आत्मा का ही अनुभव है , अर्थात् आत्मा ही स्वयं की आत्मा का अनुभव कर रही है । तो क्या आत्मा भी यहाँ आत्मा का दृश्य हो जाएगी ।
योगी अनूप: यह प्रश्न बहुत सूक्ष्म है, और इसका उत्तर हमें एक गहन स्तर पर ले जाता है। जब कोई कहता है कि आत्मा का अनुभव करना, तो हमें यह समझना होगा कि क्या आत्मा स्वयं ही दृश्य बन सकती है?
जवाब है: नहीं। कोई भी दृष्टा, दृश्य का ही अनुभव कर सकता है , भोजन करने वाला भोजन के स्वाद का ही अनुभव कर सकता है । यदि उसके सामने भोजन न होगा तो वह भोजन का अनुभव भला कैसे करेगा । इसलिए यह सिद्ध है कि अनुभावकर्ता के लिए अनुभव का विषय व वस्तु का होना आवश्यक है । यदि वह स्वयं का अनुभव करने को कहता है तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह स्वयं का ही दृश्य है । इसका तात्पर्य बस इतना है दृश्य को माध्यम बना करके स्वयं का अनुभव करता है । जिसमें दृश्य एक माध्यम मात्र होता है किंतु उसका उस काल व समय में महत्व न के बराबर होता है ।
जैसे भोजन करते समय भोजन करने वाला भोजन का अनुभव करता है । वह भोजन का अनुभव करते करते गहराई में जाकर शांति, संतुष्टि और स्थिरता का अनुभव करता है । यह जो स्थिरता और शांति, संतुष्टि का अनुभव करता है वही अनुभवकर्ता है । अब भोज व भोजन के स्वाद के बिना स्वाद लेने वाला स्वयं का अनुभव भला कैसे कर सकता है ।
इसका एक अन्य सुंदर उदाहरण है—दर्पण। जब कोई पुरुष दर्पण में देखता है, तो वह अपने ही स्वरूप का प्रतिबिंब देखता है, न कि दर्पण को। ध्यान दें उस प्रतिबिंब को देखते हुए यह भी बोध नहीं कि वह प्रतिबिम्ब को देख रहा है , उसे यह अनुभव होता है कि वह स्वयं को देख रहा है । यह भी सत्य है कि दर्पण के बिना वह स्वयं को देख नहीं सकता किंतु देखते समय उसके ध्यान में दर्पण और दर्पण में प्रतिबिम्ब न होकर वह स्वयं ही होता है । प्रतिबिम्ब को देखते हुए भी वह स्वयं का ही अनुभव कर रहा होता है ।
इसी आधार पर अनुभवी गुरु कहता है कि मैं स्वयं का अनुभव करता हूँ ।
प्रश्न: तो क्या यह कहना उचित होगा कि आत्मा ज्ञान हेतु व आत्मानुभव हेतु किसी माध्यम या दृश्य की आवश्यकता है?
योगी अनूप: यह तथ्य द्वैत की अवस्था में खरे रूप में सही लगती है। जब तक हम ‘अनुभव’ की भाषा में आत्मा को जानना चाहते हैं, तब तक किसी माध्यम—किसी दृश्य—की आवश्यकता प्रतीत होती है। यह द्वैत , अद्वैत में तब रूपांतरित हो जाता जब दर्पण में देखने वाला न तो दर्पण को और न ही दर्पण में प्रतिबिम्ब को बल्कि इन सभी के माध्यम से स्वयं का ही अनुभव कर रहा होता है । यह स्वयं की अनुभूति उसे उसके प्रतिबिंब और दर्पण से अलग कर देती है । वह सिर्फ़ स्वयं पर ही केंद्रित हो जाता है ।
प्रश्न: तो क्या आत्म-साक्षात्कार बिना किसी अनुभव के हो सकता है?
योगी अनूप: यह प्रश्न ही अनुभव और साक्षात्कार के भेद को स्पष्ट करता है। अनुभव तो हमेशा किसी अन्य दृश्य व वस्तु के साथ जुड़ा होता है—कोई दृश्य, कोई भाव, कोई विचार।
पर साक्षात्कार—वह केवल स्वयं के होने का बोध है, न कि किसी वस्तु का बोध। किसी वस्तु व दृश्य के बोध का कार्य विज्ञान का है किंतु स्वयं के बोध का कार्य आध्यात्म व दर्शन का है । जब स्वयं के साक्षात्कार शब्द की बात आती है तब वहाँ कोई दृश्य नहीं होता, कोई क्रिया नहीं होती—केवल पूर्ण स्थिति होती है। कुछ वैसे ही जैसे दर्पण के सामने उसके प्रतिबिम्ब को देखते हुए यह भी अनुभव नहीं होता कि वह प्रतिबिम्ब है । उस अवस्था में आप न कह सकते हैं कि “मैं यह देख रहा हूँ”, न यह कि “मैं यह अनुभव कर रहा हूँ”—आप केवल हैं।
इसलिए, आत्मा का अनुभव अनुभव के माध्यम से आरंभ हो सकता है, पर उसकी पूर्णता अनुभव के अंत में ही है। जब हर दृश्य गिर जाता है, हर विचार शांत हो जाता है, तब वह जो शेष बचता है—वही स्वयं का साक्षात्कार है।
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