यह प्रश्न जितना सरल प्रतीत होता है, उतना ही उसमें दार्शनिक और आनुभविक गहराई भी छिपी है। अनुभव कहता है कि स्व का स्वयं पर एकाग्र होना संभव नहीं है—और यदि संभव है भी, तो वह एक विशेष अर्थ में ही संभव है, मूल ध्यानात्मक दृष्टि के अर्थ में तो नहीं संभव बल्कि सामान्य बौद्धिक या मानसिक एकाग्रता के अर्थ संभव हो सकता है ।
चूँकि एकाग्रता की प्रक्रिया स्वयं स्व से ही उद्भूत होती है। यह वही बिंदु है जहाँ से ध्यान, चेतना और अनुभूति प्रवाहित होते हैं। ऐसे में जब हम यह कहते हैं कि “स्व स्वयं पर एकाग्र हो”, तो यह वैसा ही है जैसे आँखें स्वयं अपनी ही आँखों के देखने का प्रयास कर रही हों ।
जैसे आँखें स्वयं को नहीं देख सकतीं—वे केवल किसी अन्य वस्तु को देख सकती हैं; जैसे हाथ स्वयं को स्पर्श नहीं कर सकते—वे केवल अन्य को छू सकते हैं; जैसे कान अपनी ही ध्वनि को नहीं सुन सकते—वे केवल किसी बाहरी ध्वनि के प्रति ग्रहणशील होते हैं; वैसे ही स्व, स्वयं पर पूर्णतः एकाग्र नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो एक ऐसा अनुभव है जो किसी अन्य के माध्यम से ही अपनी प्रतिध्वनि पाता है।
‘स्व’ किसी बाह्य तत्व पर केंद्रित होकर, किसी प्रतिबिंब में, किसी अनुभूति में, किसी सम्बन्ध या द्वैत के माध्यम से ही अपनी झलक पा सकता है। वह सीधा-सीधा अपने ऊपर नहीं उतर सकता, जैसे आँख अपनी पुतलियों को नहीं देख सकती।
यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि अनुभव का ढांचा द्वैत पर आधारित होता है—एक जो जानने वाला है, और एक वह जिसे जाना जा रहा है। अर्थात् पुरुष और प्रकृति , अर्थात दृष्टा और दृश्य , व सामान्य शब्दों भोजन करने वाला और भोजन । जब तक भोजन करने वाले के सामने भोजन नहीं होगा तब तक उसे भोजन के स्वाद के बारे में कैसे ज्ञान हो सकता है । अर्थात बिना द द्वैत के ज्ञान न तो किसी वाह्य तत्व का और न ही स्वयं का ही संभव है ।
एक अन्य उदाहरण से इसे समझा जा सकता है - एक व्यक्ति जो दर्पण के माध्यम से ही स्वयं को देख पाता है , यदि दर्पण न हो तो न दर्पण का ज्ञान होगा और न ही स्वयं का ज्ञान संभव हो सकता है । इसी प्रकार दृष्टा को स्वयं की अनुभूति के लिए दृश्य (देह इंद्रियाँ) की आवश्यकता तो होगी ही । यदि देह और इन्द्रियाँ ही होगीं तो स्वयं की अनुभूति भी भला कैसे संभव हो सकती है ।
इसीलिए मैं हमेशा कहता हूँ द्वैत तो है ही , स्व बिना किसी वाह्य वस्तु के स्वयं पर केंद्रित ही नहीं हो सकता है । स्व को स्व के अनुभव के लिए उन तत्वों का सहयोग लेना पड़ेगा ही जो स्व नहीं है किंतु स्व के अनुभव क्षेत्र में है ।
इसलिए, आत्म-अनुभव की दिशा में बढ़ते हुए हमें यह समझना होगा कि प्रारंभिक साधना में ध्यान की गति बाहर से भीतर नहीं, बल्कि भीतर से पर की ओर होती है अर्थात उस स्व को किसी वाह्य तत्व पर केंद्रित होना होगा और उसके बाद उन तत्वों को माध्यम बनाकर स्वयं की अनुभूति करनी होगी । यह भी ध्यान रखना होगा जब स्व सिर स्व की ही अनुभूति करता है उसे दृश्य माध्यम की स्मृति नहीं रहती तो उसे ही सम्पूर्ण अद्वैत कहते अहीन । कुछ वैसे ही जैसे दर्पण के माध्यम से स्वयं को देखते हैं , उस समय दर्पण का अनुभव न होकर स्वयं का ही अनुभव होता है । यही स्वयं की अनुभूति को अद्वैत कहा जाएगा ।
यही मेरा अनुभव है ।
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