आँखों में गति है, किन्तु आँखों के द्वारा जो देख रहा है, वह आँखों से बाहर दिखाई नहीं देता। “मैं” को आँखों से बाहर का दृश्य ही दिखाई देता है, वह स्वयं को उन आँखों के माध्यम से दृश्य की तरह देख नहीं सकता। यहाँ पर आँखों की गति से संबंधित प्रश्न है; उससे होने वाले प्रभाव और दुष्प्रभाव से संबंधित बातें की जाएँगी।
जो आँखों से बाहर देख रहा है, उसमें कोई गति नहीं है, किंतु वह जिन आँखों से, अर्थात् जिन माध्यमों से देख रहा है, उनमें तो गति है। यदि उन आँखों में अत्यधिक तीव्र गति हो जाए, तो किसी भी दृश्य को देखने में समस्या खड़ी हो सकती है।
जैसे यदि हाथों में बहुत अधिक कंपन हो, तो किसी भी वस्तु को पकड़ना संभव नहीं हो सकता। इसे एक व्यावहारिक उदाहरण से समझना आसान होगा — व्यक्ति में जब कंपन का रोग होता है, तो उसे न केवल वस्तुएँ पकड़ने में, बल्कि चलने में भी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है।
उसी प्रकार, यदि आँखों में आवश्यकता से अधिक कंपन व गति होती है, तो वह किसी भी वस्तु या दृश्य को पूरी तरह से देख और समझ पाने में समर्थ नहीं होता।
आध्यात्मिक और ध्यान साधना में इसीलिए मैं आँखों की गति को स्थिर करने की बात करता हूँ। ‘स्थिर’ का यहाँ तात्पर्य पूर्ण स्थिरता से नहीं है, बल्कि गति के बहुत अधिक धीमे हो जाने से है — इतना धीमा कि उसकी एकाग्रता में किसी भी प्रकार की बाधा न आए।
यहाँ यह भी ध्यान देना है कि “मैं” स्वयं में स्थिर है — संभवतः इसीलिए वह आसपास के उन सभी तत्वों को स्थिर करने का प्रयास करता है, ताकि उसे स्वयं की स्थिरता का बोध हो सके, स्थिरता की अनुभूति हो सके।
चूँकि वह आँखों की गति से इतना त्रस्त हो जाता है कि स्वयं को भी अस्थिर महसूस करने लगता है, और यहाँ तक कि स्वयं में गतिमान होने का स्वभाव समझने लगता है।
मैं कह सकता हूँ कि यही उसका मूल रोग है — यह अज्ञानता ही उसकी मूल समस्या की जड़ है।
चूँकि “मैं” मूल रूप में स्थिर है, अपरिवर्तनीय है, मूलतः बदलाव रहित अवस्था में ही रहता है — और अज्ञानता व परिस्थितियों में उलझकर स्वयं को गतिमान समझता है — इसीलिए उसकी आँखों में अत्यंत तीव्र परिवर्तन होने लगते हैं। किंतु ध्यान रहे, वह “मैं” अपनी मूल प्रवृत्ति को कभी भी नहीं भूलता। इसीलिए वह उन बाह्य दृश्यों को पूजता है, जो स्थिर दिख रहे होते हैं — जैसे पहाड़, वृक्ष, और उसका इष्ट अर्थात् भगवान। वह अपने मन में उस अपरिवर्तनीय भगवान के चित्र को ही समझौते का प्रयत्न करता है।
इसके पीछे का सत्य केवल यही है कि वह “मैं” स्वयं की स्थिरता के बोध के लिए उन्हीं दृश्यों को पूजता है, जो आँखों से देखने में स्थिर प्रतीत होते हैं। इस प्रतीति से उसकी आँखों में भी स्थिरता आने लगती है, जिससे “मैं” को स्वयं की स्थिरता की अनुभूति करने में सक्षमता हासिल हो जाती है।
यही आत्म-स्थिरता की अनुभूति व्यक्ति को पूर्णतः स्वस्थ (स्वयं में स्थित) करती है और आत्मज्ञानी बना देती है।
और साथ ही, यही स्थिरता का बोध सभी आँखों में अनावश्यक गति व हलचल को भी स्थिर करने में सहायक होता है।
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