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फैलाव की आदत और हृदयघात

1 day ago By Yogi Anoop

फैलाव की आदत और हृदयघात: शिथिलता का दर्शन

“मांसपेशियों को उतना ही खिंचाव दो, जितना खिंचाव उन्हें उनकी सामान्य अवस्था में लौटते हुए अनुभव किया जा सके।” — यह वाक्य केवल योगिक अनुशासन का सूत्र नहीं, बल्कि एक गहरे शरीर-मन दर्शन की ओर संकेत करता है। खिंचाव या तनाव का उद्देश्य जहाँ एक ओर विस्तार और शक्ति हो सकता है, वहीं दूसरी ओर उसकी चरम सिद्धि शिथिलता में ही प्रकट होती है।

शरीर के किसी भी अभ्यास में यदि हम केवल मांसपेशियों के फैलाव पर ही केंद्रित हो जाएँ, और उनकी वापसी — अर्थात् उनके मूल संतुलन में लौटने की प्रक्रिया को अनदेखा कर दें, तो हम मांसपेशियों की लयबद्धता को खंडित कर देते हैं। हर मांसपेशी में एक स्मृति होती है, एक “Neuromuscular Memory” — जो उसे बताती है कि कब सख़्ती करनी है, कब ढीला होना है, और कब विश्राम की अवस्था में लौटना है। लेकिन जब मांसपेशियों को बार-बार और केवल खिंचाव का अभ्यास दिया जाता है, तो उनकी स्वाभाविक स्मृति में संतुलन की जगह केवल तनाव अंकित हो जाता है।

मेरे अनुसार अभ्यास का उद्देश्य यह होना चाहिए कि शरीर की मांसपेशियाँ अपने मूल स्वरूप — अपने संतुलन की ओर लौटने की क्षमता को पुनः प्राप्त करें। और यह तभी संभव है, जब हम अभ्यास के माध्यम से मांसपेशियों की स्मृति में “शिथिलता” की प्रवृत्ति डालते हैं। यह वही प्रवृत्ति है जिससे दीर्घकालीन स्फूर्ति, स्थायित्व और आंतरिक सहजता विकसित होती है।

परिणामस्वरूप, जब यह संतुलन स्थापित नहीं होता और मांसपेशियों को केवल फैलने और खिंचने की दिशा में प्रशिक्षित किया जाता है, तो यह तनाव की स्थायी आदत बन जाती है। यह आदत केवल शरीर की सीमाओं तक सीमित नहीं रहती — यह हृदय पर भी अप्रत्यक्ष रूप से गहरा प्रभाव डालती है।

मांसपेशियों में बना यह निरंतर खिंचाव, विशेष रूप से उन लोगों में जो योग या व्यायाम के अभ्यास में भी ‘सतत खिंचाव’ को ही लक्ष्य मानते हैं, हृदय पर अतिरिक्त दबाव उत्पन्न करता है। दीर्घकाल में यह स्थिति हृदयघात (Heart Attack) जैसे गंभीर परिणाम ला सकती है। मैंने ऐसे अनेक योग और प्राणायाम अभ्यासियों को देखा है, जो अत्यंत अनुशासित अभ्यास के बावजूद अचानक हृदय संबंधी समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं।

यहाँ तक कि जो लोग योग में “शारीरिक अनुशासन” को चरम तक ले जाते हैं, वे भी इस मानसिकता से ग्रस्त होते हैं कि ‘तनाव ही शक्ति है’, जबकि वास्तविक शक्ति उस अवस्था में है जहाँ शरीर और मस्तिष्क तनाव से मुक्त हों। मांसपेशियों को जब बार-बार खींचा जाता है, और उनसे विश्राम छीना जाता है, तो शरीर अपने भीतर एक निरंतर सक्रिय दबाव को जन्म देता है — जिससे रक्तचाप, स्नायु-तंत्र, और हृदय प्रणाली — सब पर असंतुलन का खतरा मंडराने लगता है।

मेरे पास ऐसे अनेक लोग परामर्श हेतु आते हैं, जो शरीर में अत्यधिक अभ्यास के कारण अवसाद (depression), फेसिअल पैरालिसिस, उच्च रक्तचाप, अथवा नींद न आने जैसी स्थितियों से जूझ रहे होते हैं। ये सभी लक्षण उस अनदेखे तनाव की उपज हैं, जो मांसपेशियों में निरंतर खिंचाव की आदत के रूप में अंकित हो चुका होता है। विशेषकर योग में, जहाँ अभ्यास को आध्यात्मिक विश्राम की ओर ले जाने का अवसर होना चाहिए, वहाँ भी यदि केवल भौतिक खिंचाव ही प्राथमिक बन जाए, तो इसका परिणाम विनाशकारी हो सकता है।

मेरे अपने चालीस वर्षों के प्रयोगों में मैंने शिथिलता को अभ्यास का मूल बनाया — न केवल विश्राम के लिए, बल्कि रोगों के उपचार के लिए भी। शिथिलता को जब अभ्यास का उद्देश्य बना लिया जाता है, तब शरीर और मस्तिष्क के बीच एक गहन संवाद स्थापित होता है — जहाँ तनाव और विश्राम की लयबद्धता से संतुलन जन्म लेता है।

अतः यह आवश्यक है कि हम फैलाव या खिंचाव को ही साधना का उद्देश्य न मानें। वास्तविक साधना वहाँ है जहाँ मांसपेशियाँ अपने मूल, अपने भीतर के “शून्य बिंदु” — शिथिलता — की ओर लौट सकें। तभी वे न केवल शारीरिक संतुलन की ओर लौटेंगी, बल्कि हृदय को भी तनाव से मुक्त करके जीवन को दीर्घकालीन स्थिरता और शांति प्रदान करेंगी। 

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