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अनुभव, अनुभवकर्ता और स्वयं

2 days ago By Yogi Anoop

अनुभव, अनुभवकर्ता और स्वयं — क्या वास्तव में तीन हैं?

शिष्य: गुरुदेव, एक बात समझ में नहीं आती। हम कहते हैं कि वस्तु में अनुभव छिपा है, और यह भी कहते हैं कि अनुभवकर्ता में अनुभव छिपा है। तो क्या अनुभवकर्ता केवल बाहरी वस्तुओं को ही अनुभव करता है?

और यदि ऐसा है, तो जब कहा जाता है कि “स्वयं का अनुभव करो”, तो उसका अर्थ क्या है? क्या स्वयं और अनुभवकर्ता दो अलग-अलग अस्तित्व हैं?

योगी अनूप: देखो, प्रश्न सरल लग रहा है, पर यही प्रश्न आध्यात्मिक यात्रा की सबसे कठिन गाँठ खोल देता है। सबसे पहले यह समझ लेना उपयुक्त होगा कि अनुभव कभी वस्तु में नहीं होता। वस्तु में स्वाद होता है, जो उसका मूल गुण है। उस स्वाद का अनुभव अनुभवकर्ता करता है। यह अनुभव तुम्हारे भीतर उत्पन्न होता है, वस्तु में नहीं।

जब तुम कहते हो कि “मैंने इस फूल को देखा”, तो फूल केवल दृश्य है; उस दृश्य से अनुभव उत्पन्न करने वाला तुम हो—अर्थात् अनुभवकर्ता तुम हो।

फूल बदल जाए, तो भी अनुभव करने की क्षमता तुम्हारे भीतर स्थिर रहती है। इसलिए कहा जाता है कि वस्तु में अनुभव नहीं, अनुभवकर्ता में अनुभव है।

शिष्य: लेकिन गुरुदेव, फिर “स्वयं का अनुभव” कैसे संभव है? क्या वहाँ भी मैं किसी वस्तु को ही देख रहा हूँ?

योगी अनूप: नहीं। इसी बिंदु पर अनुभव और अनुभवकर्ता का संबंध बदल जाता है। बाहरी वस्तु को देखने में दो होते हैं—एक देखने वाला और दूसरा देखा जाने वाला। यही द्वैत है।

किंतु “स्वयं का अनुभव” में यह विभाजन संभव ही नहीं है। यदि ‘स्वयं’ को भी तुम एक बाहरी वस्तु की तरह देखना चाहो, तो देखने वाला भला कौन होगा?

वह अनुभवकर्ता कौन है? वह स्वयं ही तो है। स्वयं में ही अनुभव करने की क्षमता है। तो भला वे दो कैसे हो सकते हैं? 

जो अनुभवकर्ता है—वही तुम्हारा वास्तविक ‘स्वयं’ है। स्वयं ही अनुभवकर्ता है। स्वयं में ही अनुभव करने की क्षमता है। इसीलिए अनुभवकर्ता और स्वयं को अलग-अलग शब्दों में कहा जाता है—केवल समझाने के लिए, वास्तव में वे अलग नहीं हैं।

शिष्य: तो क्या स्वयं का अनुभव कोई क्रिया नहीं है?

योगी अनूप: बिल्कुल। स्वयं का अनुभव कोई क्रिया नहीं, बल्कि क्रिया का रुक जाना है।

जब तक तुम किसी को “देखते” हो, तब तक तुम अनुभवकर्ता की भूमिका में हो। लेकिन जब सामने कोई दृश्य नहीं रहता, और दृश्य के न रहने पर भी जो अकेला बचा रहता है—वही मात्र अनुभवकर्ता है, जिसे स्वयं कहते हैं।

इसलिए “स्वयं का अनुभव” कहने के बजाय “स्वयं का बोध” कहना अधिक उपयुक्त है, अन्यथा सामान्य बुद्धि में द्वैत का भ्रम उत्पन्न हो सकता है। दृश्य के समाप्त हो जाने पर जो बचता है, वहाँ यह बोध होता है—“मैं हूँ।” स्वयं के होने का यही बोधत्व स्वयं की अनुभूति कहलाता है।

शिष्य: तो इसका अर्थ यह हुआ कि अनुभवकर्ता और स्वयं अलग नहीं होते?

योगी अनूप: जी, बिल्कुल। वे अलग नहीं होते। क्योंकि स्वयं में ही अनुभव करने की क्षमता है।

अलग तभी प्रतीत होते हैं जब तुम बाहरी वस्तुओं की दुनिया में होते हो। जहाँ ‘देखना’ है, ‘जानना’ है, ‘छूना’ है—वहाँ अनुभवकर्ता एक भूमिका निभा रहा होता है।

लेकिन ध्यान में—जहाँ भीतर की यात्रा प्रारंभ होती है—वहाँ धीरे-धीरे अनुभवकर्ता का भार गिरने लगता है।

और जब अनुभवकर्ता गिर जाता है, तो जो बचता है वही ‘स्वयं’ है।

इसलिए कहा गया है— “स्वयं को अनुभव करने का अर्थ है अनुभवकर्ता का समाप्त हो जाना।”

शिष्य: गुरुदेव, तो क्या यह अद्वैत का अनुभव है?

योगी अनूप: मेरे अनुसार, हाँ। जहाँ दो नहीं हैं—वहाँ न देखने की प्रक्रिया रहती है, न देखने वाला, न देखने योग्य। वहाँ केवल होने का बोध है। वह अनुभव नहीं—स्वयं है। और वही वास्तविक आत्म-अनुभूति है।


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